शनिवार, अक्तूबर 03, 2009


भारतेन्दु मिश्र के पाँच गीत

1.गुजरिया

रह-रह घबराता है अब मोरा जिया
चलो चलें गोदना गोदाये पिया।
हाथों मे हाथ लिए
मेले मे साथ चलें
मैं सब कुछ हार चुकी
तुम सब कुछ जीत चुके
तुम्ही कहो जादू ये कौन सा किया।
दाहिनी कलाई पर
नाम मै लिखाऊँगी
गाँव की गुजरिया हूँ
भूल नही पाऊँगी
लुका छिपी मे अब तक बहुत कछ हुआ।
हँसते हो -गाते हो
सपनों मे आते हो
धान जब लगाते हो
तुम बहुत सुहाते हो
आँखों मे चाहत का रंग भर दिया।

2.मेरा घर आँगन

पूर्वमुखी मेरा घर आँगन भीज रहा है
पच्छिम से कुछ ऎसे बादल आये हैं।
इनमे पानी नही
सिर्फ तेजाब भरा है
रूप रंग ये कैसा जीवन मे उतरा है
आज कँटीले झाड यहाँ अँकुराये हैं।
पीली होकर घास
यहाँ हरियाती है
बीमारों की संख्या बढती जाती है
थोथे गर्जन और धुएँ के साये हैं।
अब तो सभी
हवा मे बाते करते हैं
व्याकुल हुए किसान
भूख से मरते हैं
मोबाइल वो लिए हुए मुह बाये हैं।

3.बैलगाडी

यह समय की बैलगाडी
सो रहा है मस्त गाडीवान
पीकर आज ताडी।
राह के अभ्यस्त
दोनो बैल आगे बढ रहे हैं
वृक्ष पर बैठे परिन्दे
गर्म खबरें पढ रहे हैं
रात भर जलकर बुझी है
लालटेन टँगी पिछाडी।
कौन जाने किस दिशा मे
जा रहे है इस तरह हम
जिधर दिखता हरा चारा
उधर मुडता प्रगति का क्रम
बज रही हैं घंटियाँ भी
कंठ मे बाँधी अगाडी।
देखते सुनते समझते
कह नही पाते मगर कुछ
सह रहे है एक दिग्भ्रम
भूख प्यास थकान सब कुछ
इस समय का गीत गाता
एक चरवाहा अनाडी।

4.बरगद
मैं घना छतनार बरगद हूँ
जडें फैली हैं अतल पाताल तक।

अनगिनत आये पखेरू
थके माँदे द्वार पर
उड गये अपनी दिशाओ मे
सभी विश्राम कर
मैं अडिग-निश्चल-अकम्पित हूँ
जूझकर लौटे कई भूचाल तक।

जन्म से ही ग्रीष्म वर्षा शीत का
अभ्यास है
गाँव पूरा जानता
इस देह का इतिहास है
तोडते पल्लव, जटायें काटते
नोचते हैं लोग मेरी खाल तक।


 अँगुलियों से फूटकर
मेरी जडें बढ्ती रहीं
फुनगियाँ आकाश की
ऊँचाइयाँ चढती रहीं
मैं अमिट अक्षर सनातन हूँ
 शरण हूँ मैं
लय विलय के काल तक।

5.घमासान हो रहा

आसमान लाल-लाल हो रहा
 धरती पर घमासान हो रहा।

हरियाली खोई है
 नदी कहीं सोई है
 फसलों पर फिर किसान रो रहा।

 सुख की आशाओं पर
 खंडित सीमाओं पर
 सिपाही लहूलुहान सो रहा।

चिनगी के बीज लिए
 बिदेशी तमीज लिए
 परदेसी यहाँ धान बो रहा।