शुक्रवार, अगस्त 06, 2010


लोकमंगल के नवगीतकार
                    डाँ.भारतेन्दु मिश्र
                शिवबहादुर सिंह भदौरिया नवगीत दशक -1 के सम्मानित रचनाकार हैं।मैने लखनऊ के उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान में अनेक बार उनका काव्यपाठ सुना है।डाँ शम्भुनाथ सिंह ने नवगीत आन्दोलन का जो विराट ताना बाना बुना था उसमे प्रथम पंक्ति के रचनाकारो मे शिवबहादुर सिंह भदौरिया का नाम आता है।
पुरवा जो डोल गयी  उनका चर्चित गीत संग्रह रहा है। उनका काव्य संस्कार अवधी लोक जीवन से निकल कर आता है। उन्होने अपने जनपद रायबरेली को और उसकी माटी की गन्ध को कभी नही छोडा।मैने जब भदौरिया जी को सुना था तब नवगीत दशक-1 छपा ही था। हिन्दी भवन मे हमारे युवारचनाकार मंच के तमाम साथी अक्सर गोष्ठियों मे आया करते थे। यह समय सन1981 से1986 के बीच का रहा होगा। उनकी धीर गम्भीर छवि आज भी मेरे मन पर अंकित है। नवगीत दशक पढने का अवसर बाद में मिला लेकिन उनके जो गीत मुझे याद आते हैं उनमे गहरी मार्मिक व्यंजना छिपी हुई है-


मेरी कोशिश है कि
नदी का बहना मुझमें हो
मै न रुकूं संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में
मेरा बदन काटकर नहरें
ले जायें पानी ऊसर में
जहाँ कहीं हो
बंजरपन का मरना मुझमे हो।
ये पंक्तियाँ अपने लोक के आलोक मे अपने परिवेश को पहचाने बिना सम्भव नही है । अपनी धरती की प्यास बुझाने की ललक ही उन्हे लोक से जुडा हुआ प्रमाणित करती है।अपने परिवेश के बंजरपन को मिटाने के लिए कवि दधीचि की तरह अपने आपको काटने तक की बात करता है।लोक मंगल की भावना और अपने लोक के लिए कुछ करने का संकल्प जगाने वाली पंक्तियाँ फैशनेबल तुकबन्दी से और मंच की रंगबाजी से नही आतीं। भदौरिया जी को मैने शांत गम्भीर किंतु अपनी बात कहने के लिए बेचैन होते भी देखा है।यह अभिव्यक्ति की तडप अच्छे और बडे कवियों मे ही पायी जाती है। कह सकता हूँ कि वे रायबरेली के अकेले बडे कवि है जिनके बाद दिनेश सिंह,ओमप्रकाश सिंह आदि का नाम आता है। वे लोक मंगल के नवगीतकार हैं।
 एक और गीत याद आता है उनका जो हम युवा साथियो को अच्छा लगता था-
सूख रहे धान और पोखर का जल
चलो पिया गुहरायें बादल-बादल।
लदे कहाँ नीबू या फालसे करौदे
बये ने बनाये हैं कहाँ घर घरौदे
पपिहे ने रचे कहाँ गीत के महल
गजल कहाँ कह पाये ताल मे कँवल।
पौधो की कजरायी धूप ले गयी
रात भी उमंगो के रूप ले गयी
द्वारे पुरवाई खटकाती साँकल
आया है लेने कंगन या पायल।
इन्द्र को मनायेंगे टुटकों के बल
रात ढले निर्वसना जोतेगी हल
दे जाना तन-मन से होकर निर्मल
कोंछ भर चबेना औ लोटे भर जल।
 यह पूरा का पूरा गीत कवि की अपने परिवेश के प्रति आसक्ति का उदाहरण है।कृषि चेतना ही तो जनपद के कवि को धरती बादल और आसमान से जोडती है। निराला हो या मुक्तिबोध दोनो ने अपने परिवेश की चेतना को अंत तक अपनी रचनाधर्मिता का अनिवार्य अंग बनाये रखा। यह सूखे का गीत जहाँ कृषक दम्पति इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए लोकानुसारी जतन कर रहे हैं। ये टोटके और ये जतन किअतने कारगर हैं यह अलग बात है,महत्वपूर्ण है वह संवेदना जो इस पूरे कृषक समाज के हित से जुडी हुई है। लोक में ऐसी मान्यता रही है कि सूखे में इन्द्र देवता को प्रसन्न करने के लिए जब स्त्रियाँ निर्वसन होकर रात मे खेत जोतती हैं तो देवता प्रसन्न होते हैं और पानी बरसने लगता है।भदौरिया जी ने इसी सूक्ष्म संवेदना को इस गीत में बडे कलात्मक तरीके से पिरोया है। तात्पर्य यह है कि हम स्त्री पुरुष सब पानी के बिना अधूरे हैं।इसी लिए कृषक की पत्नी कहती है-चलो पिया गुहरायें बादल-बादल यह एक प्रकार का जनहित मे लिया गया संकल्प है। कोंछ भर चबेना और लोटा भर जल का तो जवाब नही है। जो श्रमश्लथ कृषक पत्नी को हल जोतने के बाद आवश्यक होगा। इस अनुपम श्रम सौन्दर्य की व्यंजना का अर्थ और महत्व वही समझ सकता है जो चबेना और पानी की संस्कृति को जानता है। केदारनाथ अग्रवाल-नागार्जुन-त्रिलोचन आदि के यहाँ श्रम सौन्दर्य और प्रगतिशीलता का अद्भुत सामंजस्य देखने को मिलता है। इसीलिए वे बडे कवि हैं। इस अर्थ मे भदौरिया जी भी हमारे समय के बडे नवगीतकार हैं।
मौसम और ऋतु को कई तरह से अनेक कवियों ने लिखा है लेकिन यहाँ भदौरिया जी की अभिव्यक्ति अपनी मौलिकता के कारण सबसे अलग दिखायी देती है। अवधी भाषा और अवध की जीवन शैली कवि की रचनात्मकता को आलोकित करती है। सुना है कुछ और काव्य संग्रह भी भदौरिया जी के प्रकाशित हुए हैं किंतु बाद की पुस्तकें पढने का सुयोग मुझे नही मिला। अंतत: चौरासी वर्ष की आयु में हम सबको यही प्रार्थना करनी चाहिए कि आदरणीय भदौरिया जी दीर्घायु हों और दूरतक हम सबका मार्गदर्शन करते रहें।
काव्यालोक  के सभी साथियों को अभिवादन सहित।