गुरुवार, जुलाई 22, 2010

समकालीन गीत : आलोचना के आयाम


भारतेन्दु मिश्र



हिन्दी कविता मे सर्वाधिक अंश गीत का है,स्वातंत्र्योत्तर गीत से ही विकसित हुए हैं :-नवगीत और जनगीत ,दोनो एकही सिक्के दो पहलू हैं। गीत की संवेदना वृत्ताकार होकर शब्दलय और अर्थलय की परिधियों को पार कर जीवन की केन्द्रीय लय तक पहुँचती है उसे ही रसानुभूति या रसलय कह सकते हैं।जीवन की केन्द्रीय लय तो जन्म से ही हमारी साँसों मे व्याप्त है। जैसे जैसे हमारे जीवन के सौन्दर्यमूल्य विकसित हुए हैं वैसी ही काव्य की अनुभूति हमें होती है। हमारे आचार्यों ने काव्य को सामान्य तौर पर व्यंजना के आधार पर उत्तम,मद्धयम और अधम तीन प्रकार का माना है। मम्मट आदि,के अनुसार हमारा नवगीत भी इन तीनो श्रेणियो मे रखा जा सकता है। अर्थात कही वह लय सहज है तो कही उसे पकडना पडता है तो कहीं वह टूट भी जाती है। हमारे प्रारम्भिक कवितापारखी, कलापारखी और रंगमंचकार भरत ने कहा था-अलातचक्रप्रतिमम कर्तव्यो नाट्य योक्तृभि:अर्थात नाटक को अलातचक्र के समान सृजित करना चाहिए।अलात चक्र अर्थात आग का वह गोला जो तमाशा करने वाले मदारी द्वारा जलता हुआ पलीता बाँधे हुए दण्ड को घुमाने से निर्मित होते हैं। उसकी वास्तव मे कोई सत्ता नही होती किंतु वह अपने सृजन से लेकर अवसान तक दर्शक को बाँधकर रखता है। वहाँ महत्वपूर्ण संतुलन होता है। संतुलन बिगडते ही आग के गोले की रचना बन्द हो जाती है,अर्थात कलात्मक सुख समाप्त हो जाता है। अर्थात संतुलन ही कला की सबसे बडी विशेषता है। गीत मूलत: काव्य कला का ही एक रूप है उसमें जहाँ कहीं भी संतुलन का अभाव होगा वहाँ वह गीत नही बन पायेगा।

समकालीन गीत के परिदृश्य में पारम्परिक शैली के गीत के अलावा हर एक गीतकार –नवगीत और जनगीत दोनो तरह की रचनाएँ लिख रहा है।जनगीत हो या नवगीत रचना मे गीति और छन्द का सही निर्वाह तो होना ही चाहिए। लेकिन आज कल अपने आपको प्रतिष्ठित करने के लिए ऐसी होड मची है कि कोई तो स्वयं को लघुगीत का जनक साबित करने मे लगा है, तो कोई गीतनवांतर आन्दोलन चला रहा है। जिसको देखो वह बिना किसी दृष्टि के निरुद्देश्य आठ-दस कवियों को लेकर संकलन सम्पादित किए चला जा रहा है-कि उसके नाम से एक किताब आ जाये और उसे सम्पादक का गौरव मिल सके। कोई अपनी पुरानी रचनाओं को फिर से झाड -पोंछ्कर नई के रूप में प्रस्तुत कर रहा है,कोई पत्रिका के आयोजन के माध्यम से आत्मप्रतिष्ठा मे लगा है। इन चालाकियों से न तो कोई प्रतिष्ठित होता है और न कोई महान बना है। कारण यही है कि समीक्षा/आलोचना का नितांत अभाव है। हमारे कई वरिष्ठ कवि लगातार अपने आपको दुहरा रहे हैं।एक ओर इण्टरनेट पर नवगीत की पाठशाला चल रही है। तमाम देश विदेश के कवि वहाँ नवगीत लिख रहे हैं। दुनिया भर मे पढे भी जा रहे हैं।लगातर व्यक्तिगत गीत /नवगीत संग्रह छप रहे हैं।आलोचना को न सह पाना सत्य को न स्वीकारने जैसा होता है। अधिकतर नये कवियों के छन्द लडखडा रहे हैं। छन्द पूरा है तो अर्थ की लय टूटी हुई है।सब जल्दी में हैं जब हम गीत की समीक्षा की बात करेंगे तो उसके क्राफ़्ट और टेक्स्ट दोनो पर विचार करना ही होगा। यह समय गीत के विविध प्रयोग और उनके आयामो को व्याख्यायित करने का है। न कि गीत नवगीत जनगीत के नामकरण को लेकर बहस करने का।हमने अपने समीक्षा कौशल के नाम पर गीत और नवगीत के नामकरण पर निरर्थक लम्बी बहसें की हैं। जब प्रलेस (1936) से जुडे कुछ कावियों/शायरों ने इफ्टा का गठन किया तो कैफी आजमी जैसे शायर जनता के बीच जाकर प्रलेस के अधिवेशनों में अपनी शायरी प्रस्तुत करते थे। बाद मे प्रगतिशील विचारों से जुडे कवियों ने जनगीत का नारा दिया। वे सचमुच समूह मे जाकर जन जागरण करते थे। लखनऊ के रवीन्द्र नागर जैसे गायकों से जिन लोगों ने प्रगतिशील कवियों(केदारनाथ अग्रवाल,नागार्जुन,शमशेर,त्रिलोचन आदि) का कविता पाठ सुना है वे जानते होंगे कि काव्यपाठ शैली किसे कहते हैं।रवीन्द्र नागर ऐसे ही जनगायक हैं।वे भी इफ्टा से जुडे रहे है।

चौथे,पाँचवे दशक में यह नवगीत आन्दोलन जो नई कविता के समय से शुरू हुआ था उसी के समकक्ष वर्गीय चेतना को प्रखर बनाने के लिए नुक्कड नाटकों,में प्रयुक्त गीतों द्वारा जनजागरण का कार्य भी शुरू किया गया। रमेश रंजक जनगीत के प्रमुख उन्नायक थे। हम यह भी कह सकते हैं कि नवगीत दशक योजना में शामिल न हो पाने की खीझ ने उन्हे जनगीतकार बनाया। अधिक शराब पीने,और गालियों से बात करने के कारण उनकी व्यक्तिगत छवि अच्छी नही थी हाँलाकि वे सचमुच बहुत श्रेष्ठ गीतकार थे।उन्हे उनके तथाकथित अपनों ने ही स्वीकार नही किया था। अपनों द्वारा स्वीकार न किया जाना बहुत मारक होता है।जैसा कि प्राचीन नाटककार भास ने कहा था-शरीरे अरि: प्रहरति हृदये स्वजनस्तथा। अर्थात दुश्मन तो शरीर पर वार करता है लेकिन अपना व्यक्ति हृदय पर प्रहार करता है।शरीर के प्रहार से मनुष्य बच सकता है किंतु हृदय पर वार करने से मनुष्य का मरना तय हो जाता है। रमेश रंजक जी के अंतिम दिन बहुत निराशा मे कटे। नचिकेता जी का उत्तरायण में छपा लेख नवगीत के जनबोध की हकीकत में नवगीत बनाम जनगीत की बहस है।उन्होने सप्रमाण श्रीकृष्ण तिवारी,देवेन्द्र शर्मा इन्द्र और कुमार रवीन्द्र के गीतों के अंश देते हुए अपनी बात रखी है। उन्हे बधाई कि साफगोई से नवगीत में यह आलोचना की परम्परा देर से ही सही आगे तो चलती हुई दिखाई दे रही है।बहुत प्रसन्नता हुई कि नवगीत के टेक्स्ट पर उन्होने बात की। मैने कुमार रवीन्द्र जी का लेख नही पढा। उत्तरायण के सम्पादक निर्मल शुक्ल को भी साधुवाद कि उन्होने बहस शुरू की। बात निकली है तो फिर दूर तलक जायेगी। सवाल यह है कि गीत नवगीत की आलोचना के सिद्धांत या औजार कौन से होंगे?अब सवाल यह भी उठता है कि मार्क्सवादी विचारधारा के अलावा क्या हमारे साहित्य के समाजशास्त्र मे और कोई विचार या धारा है ? यदि है तो कितनी महत्वपूर्ण और दूरगामी है? जलेस ने रमेश रंजक के लिए क्या किया ? मैने व्यक्तिगत तौर पर उन्हे जनवादी लेखक संघ के दफ्तर में चंचल चौहान जैसों से अगीत और जनगीत की अकेले लडाई लडते देखा है। जनवादियों ने उन्हे तब कवि नही माना था शम्भुनाथ जी ने अपने दुराग्रह के चलते उन्हे ही नही शलभ श्रीराम सिंह,शांतिसुमन और वीरेन्द्र मिश्र को नवगीतकार नही माना।हालाँकि जिन तीस कवियों को उन्होने नवगीतकार माना उनका क्या हस्र हुआ? यह अलग सवाल है।

विचार कोई जड वस्तु नही होती उसकी धारा में भी परिवर्तन होता है।.रूस मे पेरेस्त्रायिका लागू होने के बाद से पूरी दुनिया में बदलाव हुआ,अभी पश्चिम बंगाल में सिन्गुर ग्राम मे वर्ग चेतना की ही नही बल्कि आम जन की धज्जियाँ कलावादियों ने नही बल्कि मार्क्सवादी काडर द्वारा उडायी जा चुकी हैं।जिन्हे आम आदमी से जुडे होने के कारण कामरेड कहा जाता था उनमें से अधिकांश नवसामंत बन गये हैं। अभी-अभी अमरीका जैसे पूँजीवादी देश मे ओबामा की अध्यक्षता में कामन हेल्थ बिल पास हुआ तो सबकी आँखे खुल गयी हैं-कि पूँजीवादी देश में यह कामन मैन का फार्मूला कहाँ से आया? यह अंतर्विरोध और विरोधाभास अक्सर हर समाज में होता है । आज जब मार्क्सवाद और उसके वैचारिक पक्ष और वर्गीय चेतना का अवमूल्यन हो चुका है जब कामरेडों की घृणित सच्चाई सजग कवि के सामने समकालीन गीत के रूप में आने लगी है तो हमें सावधान होने की जरूरत है। क्या फर्क पडता है कि आप कवि को नवगीतकार कहें या जनगीतकार मानें- कमरों मे कामरेड बैठे हैं सडकों पर खून बह रहा है।.यश मालवीय,

और हम सब मूक दर्शक हैं।हर एक कवि के यहाँ कुछ रचनाएँ पारम्परिक गीत,या नवगीत या फिर जनगीत हो सकती हैं।यह मेरी संकल्पना है। यह कवि की मानसिकता और उसकी निर्मिति पर निर्भर करेगा। जहाँ तक मार्क्सवादी समीक्षा सिद्धांत की बात है तो उसकी कुछ बातें हम सभी स्वीकार करते हैं । आम आदमी के अधिकार के लिए संघर्ष का स्वर देने में गीतकार नवगीतकार पीछे नही रहे।श्रम सौन्दर्य की उपेक्षा नवगीत ने कभी नही की। लेकिन भारतीय सौन्दर्य चेतना का उत्स तो ऋग्वेदकालीन समाज से ही विकसित हुआ और बाद में सामभ्यो गीत मेव च की सदियों पुरानी भरत मुनि की अवधरणा से जुडा है।हमें उसकी सनातनता पर भी ध्यान देना होगा। गीत की रचना उसकी रससिद्धि से जुडा मामला है,वह केवल संवेग के विरेचन से जुडा मामला भर नही है। खण्डित लय और छन्द वाली कविताओं को हम गीत कैसे मान सकते हैं? केवल नामवर जी,मैनेजर जी या प्रभाकर श्रोत्रिय जी हमारे आदर्श समीक्षक विचारक कैसे हो सकते हैं? वे जब समीक्षा की बात करते हैं तो उनके सामने गीत बिल्कुल नही होता।हम उनके औजारों को गीत की समीक्षा में कैसे शामिल कर सकते हैं? जैसा कि नचिकेता जी उन्हे कोड करते हुए अपनी बात रखते हैं।मैने देखा है स्व.रमानाथ अवस्थी को नामवर जी के सामने गिडगिडाते हुए –हे नामवर अब बेचारे गरीब गीत पर रहम करो ,कुछ लिखो।‘श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन (सं.कन्हैया लाला नन्दन) के लोकार्पण के अवसर पर ,तब नामवर जी ने साहित्य अकादमी के मंच से कहा था-‘गीत मेरेलिए आलोचना से परे है।जैसा कि भागवत मे गोपी प्रेम के विषय मे कृष्ण ने कहा था-अनालोच्यो हि प्रेम्ण:।अर्थात जैसे गोपीप्रेम आलोचना का विषय नही हो सकता वैसे ही गीत मेरे लिए आलोचना का विषय नही है।‘ साहित्य अकादमी के सभागार मे एक ठहाका गूँजा था। इसप्रकार उड गया था सारा विचार हँसी में,तो इन लोगों ने कभी छन्दोबद्ध कविता को सकारात्मक कविता नही माना। उनके लिए,राजेश जोशी,मंगलेश डबराल,अरुण कमल आदि बडे कवि हैं ये सभी कितनी बार किसानों मजदूरों के साथ जेल गये हैं या उनके लिए पुलिस की लाठी खायी है,शायद ही किसी कवि को मालूम हो ,यह जरूर है कि ये सभी जनवादी राजनीति से जुडे रहे हैं। यह भी मालूम है कि नामवर जी और मंगलेश डबराल दोनो एक साथ सहारा श्री के दफ्तर मे नौकरी कर चुके हैं। सहारा श्री की छवि मार्क्सवादी या जनवादी तो कभी नही रही है।इनकी जनवादी वैचारिक प्रतिबद्धता के ऐसे अनेक प्रमाण हैं। ज्ञातव्य है कि मंगलेश डबराल ने वागर्थ मे छपे अपने एक साक्षातकार में गीतकारों को भाँड कहा था, तब संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय थे।ये सब प्रायोजित गोष्ठियों के अवसरवादी कलाकार हैं सुरेश सलिल के शब्दों में जो- गंगा गये गंगादास जमुना गये जमुनादास।..हो गये हैं,जो बडे अधिकारी, पत्रकार, निजी विद्यार्थी ,या बडे प्रकाशकों और उनके हितों के लिए काम करते रहे हैं तथा ऐसे कवियों को बडे-बडे पुरस्कार आदि दिलाने में इन्ही की भूमिका रहती है।ये अवसरानुकूल अपनों को स्थापित करने मे ही ये लगे रहते हैं। ये और इनके कुछ साथी ही सभी जगह समितियों मे निर्णायक है । तद्भव-2 मे छपी डाँ.नामवर सिंह की आत्मकथा पढने से बहुत निराशा होती है। ये परिस्थितियाँ आक्रांत तो करती है,लेकिन गीतकार को इनसे घबराने की जरूरत नही है। इनका विचार या चिंतन ही अंतिम सत्य नही हो सकता।हम सब- जब तब उनके दोहरे तेहरे वैचारिक विचलन और जीवन को देखते रहे हैं। ये चकित करने वाले हैं हमारी मिट्टी मे जनमी कविता की जडें खोदने के लिए विदेशी औजार इन्ही लोगों ने खोजे हैं। यही कारण है कि हमारा नवयुवक आज भारतीय चिंतन प्रक्रिया से कट गया है। आज का समीक्षक ब्रेख्त,चेमस्की,क्रिस्टोफर काडबेल,शिम्बोस्र्का जैसे विदेशी चिंतकों के विचारों के आधार पर सरोज स्मृति,राम की शक्तिपूजा,और तुलसीदास जैसी महान कविताओ को पीछे ढकेल कर मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस से दो दो हाथ करने की नाकाम कोशिश करते हैं।उसके सामने ,भरत,दण्डी,आनन्दवर्धन,अभिनवगुप्त,मम्मट, आदि नही हैं,क्योकि इन लोगों ने कवि को उसके लोक सन्दर्भ से काटकर उसकी व्याख्या अपने औजारों से की है। ये अभिनवगुप्त,रामचन्द्र शुक्ल,राहुल सांकृत्यायन और हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्य मनीषियों को मूर्ख मान बैठे हैं। महात्मा गाँधी को भी ये उल्लेखनीय विचारक नही मानते।अगर रामविलास शर्मा जैसा समन्वयवादी आलोचक निराला को नही मिलता तो इन्होने निराला को भी खारिज कर दिया होता। ये वही लोग हैं जिन्होने रामविलास शर्मा जैसे महान मार्क्सवादी विचारक को भी हिन्दुत्ववादी घोषित कर डाला। क्योकि रामविलास जी जानते थे कि कोई एक विचार या धारा या विचार धारा ही हमारे समाज का प्रतिनिधित्व नही करती। हमारा समाज बहुलतावादी रहा है। हर समाज का आम आदमी कह सकता है- जिस तरह तू सोचता है उस तरह तू लिख और इसके बाद भी मुझसे बडा तू दिख। * भवानी प्रसाद मिश्र या कि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के शब्दों में- सब अपनी अपनी कहते हैं कोई न किसी की सुनता है,नाहक कोई सिर धुनता है दिल बहलाने को चल फिर कर,फिर सब अपने में रहते हैं।

कविता के सरोकार आम आदमी से जुडे होने चाहिए इसमें कोई दो राय नही है। बहरहाल आज के समीक्षक को ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के भरत मुनि का नाम तक ज्ञात नही है।वह यह भी नही जानता कि भरत ही सर्व प्रथम भारतीय कलाविद रंगप्रयोक्ता और कला विश्लेशक हैं जिनके नाट्यशास्त्र की रचना स्त्रियों और दलित जातियों के लिए हुई थी। नमालूम कितने विविध जातियों के भरतपुत्रों ने मिलकर उस महाग्रंथ का समाज के हित में प्रयोग किया। कविता,नृत्य,अभिनय,वास्तु,चित्रकला,भाषा,व्याकरण,गीत- संगीत आदि के साथ लोक और जीवन के प्राय: सभी पक्षों पर वहाँ भी विचार किया गया है।भरत कहते हैं-तस्माल्लोकप्रमाणम हि विज्ञेयम नाट्यम

अर्थात नाटक या कला की श्रेष्ठता का अंतिम प्रमाण लोक है। लोक क्या है?-- जिसके आलोक में जन के सारे क्रिया व्यापार चलते हैं-वह लोक है, उसी में कविता भी है, गीत भी है। वहाँ लोक और जन का भेद नही है। वहाँ लोक भाषा,लोक रीत,लोक कलाएँ,लोक गीत,लोकमंच,सबकुछ है। वहाँ लोकजन भी है और अभिजन भी है किंतु वह ग्रामीड और नागर के रूप में है।अत:हमे लोक शब्द का अर्थ किसी बर्तोल्त ब्रेस्ट आदि से पूछने की जरूरत नही है। अब तनिक आज के हमारे सामाजिक ताने बाने को देखें तो यहाँ भी जिसे आज जन कहा जाता हैं, वह किसान मजदूर और सर्वहारा ही तो है।और जिसे वो अभिजन कहते हैं वो महानगरीय सभ्यता का पैरोकार सुविधा भोगी है।हम जन पर कविता लिखते हैं,उसके पैरोकार की भूमिका तो निभाना चाहते हैं ,परंतु उस जैसा जीवन कितने लोग जीते हैं?हमारे यहाँ जब किसान आत्महत्या करता है या जब किसी गरीब मज्दूर पर अत्याचार होता है,या जब आदिवासियों को उजाडा जाता है तब हमारा आज का जनगीतकार क्या कर रहा होता है? प्राचीन वीर रस के कवि चन्दबरदायी ,जगनिक आदि जैसे लडते हुए सकारात्मक ज्ञानात्मक संवेदना के आधार पर कविताई करते थे, वैसे आज कितने जनगीतकार हैं जो किसान मज्दूर के साथ खडे होकर लड रहे हैं।केवल धूमिल और मुक्तिबोध की माला जपने से तो काम नही बनेगा।हबीब तनवीर जैसे कितने रंगकर्मी हैं जो लण्डन से रंगनिर्देशन मे डिग्री लेकर अपने गाँव मे नया थियेटर की स्थापना करते हैं और अपने जन के साथ खडे हुए दिखायी देते हैं।महात्मा गाँधी जैसे कितने हैं जो स्वयं अपनी टट्टी साफ करने(मिट्टी मे दबाने) के बाद दलितों के हित की बात करते हैं। सवाल यह उठता है कि तेलगू के कवि वर्वर राव,और मराठी कवि नारायण सुर्वे जब कविता मे क्रांति की बात करते हैं तो अच्छे लगते हैं।वे सचमुच लडते रहे हैं, किंतु समकालीन हिन्दी का कवि जिसे अपना ही पडोसी नही जानता वह इण्टरनेट पर जब जब क्रांति की बात करता है तो उसका चेहरा मुझे अश्लील लगने लगता है। आज दशा यह है कि अमरीका के किसी पूँजीपति (फोर्डफाउण्डेशन आदि एन.जी.ओ.)से विज्ञापन के नाम पर एक तखत माँगकर उसपर खडे होकर हम उसी पूँजीवादी या नवसाम्राज्यवादी व्यवस्था को सिर्फ दिखावे के लिए गरिया रहे हैं।हम इसी नौटंकी में समझते हैं कि हमने क्रांति कर डाली ,हम ही केवल सार्थक हैं-हमने ही मंच लूट लिया, कि हमने बाजार का विरोध कर दिया- मगर हुआ क्या?पूँजीवादी ताकतें और मजबूत हुईं। हमने जिस तरह साम्प्रदायिकता विरोध का नाटक किया उससे सौ गुना धर्म का धन्धा फल फूल रहा है। हजारों बाबा अपनी दुकान सजाये बैठे हैं।हमने क्या किया इतने जनवादी कवियों के बावजूद ‘अब तक क्या किया ,जीवन क्या जिया?’जब मुक्तिबोध पूछते हैं तो सार्थक लगता है। जब वो मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र गढते हैं तो भारतीयता की कहीं उपेक्षा नही होती। लेकिन तुलसी,सूर ,मीरा को मनुवादी कह कर गरियाने वाले ,विवेकानन्द को हिन्दुत्ववादी,सुभाषचन्द्र बोस को भगोडा, महात्मा गान्धी को नपुंसक साबित करने वाले कुछ मूर्ख चिंतक भी हैं। जो अपने आपको मार्क्सवादी कहते हैं। उनसे हमें अपने को ही नही गीत को भी बचाना है। ये मन्दमति मार्क्सवादी इसी देश में पैदा हुए,और विदेशी मुखौटे लगाकर झूठ की मूठ पकडे तमाम नौटंकी रचने मे लगे हैं। प्रगतिशील लेखक संघ दिल्ली के प्रथम अध्यक्ष विष्णु प्रभाकर थे, उनको भी ऐसे ही लोगों ने न जाने कब भाजपाई साबित कर दिया। अत: नचिकेता जी से निवेदन है कि लोक और जन को पूरी भारतीय परम्परा में देखें मूर्ख मार्क्सवादियों की भाँति असम्बद्ध करके नही।मेरी दृष्टि में नवगीत की प्रगतिशील परम्परा का ही नाम जनगीत हो सकता है।जैसे हर गीतकार नवगीतकार नही होता वैसे ही हर नवगीतकार जनगीतकार नही होता। नवगीत की प्रवृत्ति के रूप में यदि कुमार रवीन्द्र जनबोध को रेखांकित करना चाहते हैं तो इसमें क्या बुरायी हैं? मेरी दृष्टि मे समकालीन नवगीतकार जनवादी संवेदना की प्रवृत्तियों के गीतकार हो सकते हैं जनगीतकार नही। अवध के हिसाब से कहूँ तो पढीस,बंशीधर शुक्ल , रमई काका, दिवाकर प्रकाश अग्निहोत्री, शील जी और घूरू किसान जैसे कवि जनकवि कहे जायेंगें- ईंट किसानन के हाँडन की,लगा खून का गारा पाथर अस जियरा किसान का चमक आँख का तारा।,बंशीधर शुक्ल जनगीत जनभाषा में होता है ,मुझे लगता है कि हिन्दी में कवि की अपनी किसी जनभाषा(बोली) का समावेश किए बिना खडीबोली में जनगीत नही लिखा जा सकता । अवधी,ब्रज,भोजपुरी,मगही,मैथिली,बुन्देली,कुमाउनी तथा अन्य सामान्य तौर पर किसान और मजदूरो द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं मे की जाने वाली कविता को जन कविता या जनगीत कहा जाता रहा है। अत: जब हम जनगीत को नवगीत से अलग करके देखेंगे तो ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनपर नचिकेता जी को गम्भीरता से विचार करना होगा। मेरी दृष्टि में ये सभी बिन्दु समकालीन गीत -नवगीत और जनगीत को समझने के लिए आवश्यक हैं। यह कह कर मै कलावादी या रूपवादी नवगीतकारों की रक्षा नही कर रहा हूँ। यह बात अवश्य है कि कलावादी और जनवादी दोनो प्रवृत्तियाँ हर समाज में हर समय मे रही हैं। सभी नवगीतकार कलावादी हैं और जनगीतकार नवगीतकार से नितांत भिन्न हैं। यह कहना गलत होगा। नकलीपन की अगर बात करेंगे तो नवगीत का ही नही अधिकांश हिन्दी कविता का जनबोध दिखावटी लगेगा कहीं कहीं जनगीत का भी। आवश्यक यह है कि पहले असली जनगीतकारों की सूची तैयार की जाये। जैसे राधावल्लभ त्रिपाठी ने संस्कृत कविता की दूसरी परम्परा की खोज की है और विल्हण,कल्हण,योगेश्वर ,श्रीधरदास,शार्डदेव जैसे करीब पाँच सौ प्राचीन लोक कवियों की कविताओं का कोश सम्पादित किया है।देखें-- स्तब्धस्तिष्ठसि पश्यदन्धपुरत:किं दर्शनाकाड्क्षया जल्पनमूकमुखादित: प्रतिवच: किं श्रोतुमाकाड्क्षसि य: शृण्वद्वधिर:शृणोति स कथं विज्ञप्तिकां तावकीं प्राणप्रेतमुपासमाननपठनमूर्खस्त्वदन्यो जन:।(वल्लण) अर्थात अन्धे के सामने चुपचाप खडे होकर उसके द्वारा देखे जाने की आकांक्षा रखते हो?मूक के सम्मुख कुछ कहकर उसका उत्तर सुन लेना चाहते हो?जो बधिर है वह तुम्हारा निवेदन कैसे सुनेगा? प्राणपण से जिस अन्धे –गूगे- बहरे प्रेत जैसे स्वामी की सेवा में लगे हो तुमसे अधिक मूर्ख और कौन होगा? वल्लण श्रमिक को जगाते हुए कहते हैं-हे,सेवक जिस मालिक की सेवा तू कर रहा है वह तेरी सेवकाई के प्रति न तो कुछ देखना चाहता है ,न कुछ सुनना चाहता है,न कुछ कहना चाहता है फिर भी मूर्ख तू उसकी सेवा प्राणपण से कर रहा है? ये जादातर गरीब किसान और खेतिहर मजदूरों तथा उनकी महिलाओं के सरोकारों पर लिखी गयी कविताएँ हैं। हम संस्कृत कवियों के नाम पर केवल कालिदास भारवि माघ आदि को ही जानते हैं।सचमुच हम अपने ही बारे में बहुत कम जानते हैं। अर्थात हमारे समाज मे जनपक्ष की कविताई पहले से ही होती आ रही है। जनवाद की राजनीति में गीत को घसीटना उचित नही है। हमारी परिस्थितियों मे विकसित हमारा सौन्दर्यशास्त्र हमारे लोक जीवन को आलोकित करता है।त्रिलोचन कहते थे-अवध का हर एक गाँव विश्वविद्यालय है।

ऐसा किसी भी क्षेत्र के गाँव के बारे मे कहा जा सकता है।जिन कवियों ने आम जन के हितो की उपेक्षा होने पर प्रतिरोध का परचम लहराया ,सत्ता के सामने जाकर धरना प्रदर्शन किया जेल गये और लाठी खायी। वे असली जनकवि या जनगीतकार कहे जाने चाहिए। अब ऐसे कितने बचे हैं। वे नही जो तमाम सुविधाएँ भोगते हुए केवल पुरस्कारों के लिए तिकडम फिट करते घूम रहे हैं। सवाल यहाँ अपनी रचनात्मकता और अपनी वैचारिक ईमानदारी का भी है। हमें सोचना होगा कि आज तुलसी का लोकमंगल वाला काव्यप्रयोजन या फिर निराला और मुक्तिबोध का काव्यप्रयोजन हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है?हम धन चाहते हैं,या यश?क्रांति या लोकहित तो हमारा ल्क्ष्य नही है? जो कवि अपनी फोटो अपनी किताब के मुखपृष्ट पर छपवाकर अपने जीते जी अपनी प्रशस्ति देख लेना चाहते हैं। ऐसे आत्ममुग्ध कवियों की रचनात्मक प्रतिबद्धता पर विचार करना अपना सिर पीटने से कम नही है।साहित्य का ऐसे कवियों से कभी कोई भला होने वाला नही है।यह विवाद नया नही है।माहेश्वर तिवारी कहते हैं- धूप में जब भी जले हैं पाँव/घर की याद आयी। इसके जवाब में देखिये रमेश रंजक लिखते हैं- धूप में जब भी जले हैं पाँव/सीना तन गया है।

सवाल यह है कि धूप में पाँव जलने से आम आदमी छाँव की तलाश करना चाहता है,वह घर हो सकता है,वृक्ष हो सकता है।ताप और थकान मिटाने के लिए स्वाभाविक रूप से सर्वहारा को घर की याद आती है खासकर जो वर्ग अपना घर गाँव छोडकर शहरों मे नौकरी करने आता है उसको, क्योकि वह अपने घर की बेहतरी के लिए ही धूप मे मेहनत कर रहा होता है,यह गृह रति है पलायन नही। यह माहेश्वर तिवारी के गीत की स्वाभाविक जनवादी व्यंजना है। दूसरी ओर रमेशरंजक की पंक्ति मे अक्खड और अडियलपन है यहाँ धूप में पाँव जलने पर सीना तन जाने की दुरूह कल्पना की गयी है। यहाँ यह स्पष्ट नही है कि वह किसान या मज्दूर किस प्रयोजन के लिए पाँव जलने पर भी धूप मे सीना ताने खडा है। गीत के भाव से लगता है कि वह आत्मघात करने जा रहा है। यह कल्पना कितनी वास्तविक है- इसका अन्दाजा धूप में नंगे पाँव काम करते किसान मजदूर से पूछकर ही तय किया जाना चाहिए। कही यह जनवादी नारे के शिल्प मे नवगीत को जवाब देने की कवायत तो नही थी? जो भी हो समकालीन गीत के भविष्य के लिए नवगीत या जनगीत जैसे विवाद बहुत हानिकर हैं। सृजन स्वच्छ मन से किया जाता है- तभी उसका महत्व होता है।