सोमवार, सितंबर 03, 2018


   समीक्षा                                                               
             लोक मे रचाबसा रचनाकार
                           - राजेन्द्र नागदेव
त्रिलोचन शास्त्री जैसे सामान्य से भिन्न जीवन जीते रहने वाले, ग्राम लोक से सम्पृक्त रचनाकार के जीवन एवं साहित्य के विभिन्न आयामों को सामने लाने की आवश्यकता साहित्य जगत में महसूस की जा रही थी। श्री महावीर अग्रवाल को दिये एक साक्षात्कार में डा.प्रभाकर श्रोत्रिय ने इस आवश्यकता को व्यक्त किया था। वे कहते हैं “जीवन के कटु सत्य को सबसे निकट से देखने और भोगने वाले हिन्दी रचनाकारों में त्रिलोचन का संसार अलग ही रहा है। पाँच दशक से अधिक का समय बीत चुका है, अस्सी पार करने के बाद भी त्रिलोचनजी का ठेठ गाँव का आचरण नहीं बदला . .” इसी साक्षात्कार में आगे कहते हैंउनकी रचना की परिपक्वता आज भी मूल्यांकन की बाट जोह रही है। जन्म शताब्दी वर्ष में ऐसा हो सका तो निश्चित रूप से हम एक महान जीवन को भी पहचानेंगे और बड़ी कविता को भी। और यह काम अभी बाकी है। इस बाकी कार्य को करने का प्रयास हिन्दी-अवधी के वरिष्ठ रचनाकार डा भारतेन्दु मिश्र ने समीक्ष्य पुस्तक “त्रिलोचन शास्त्री” में किया है। लेखक को शास्त्रीजी के सम्पर्क में कुछ वर्ष रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। निश्चित रूप से उन्हें शास्त्रीजी जैसे फक्कड़ व्यक्तित्व को निकट से देखने समझने का मौका मिला होगा और वह सब इस पुस्तक में प्रामाणिकता के साथ आया होगा।
पुस्तक में आठ अध्याय हैं- जीवन परिचय, त्रिलोचन की कविताई, उनकी छान्दस चेतना, अवधी कविताएँ, उनके सरोकार, भाषा, गद्य, उनके साथ लेखक के संबंध आदि। इस लघु पुस्तक में त्रिलोचनजी के व्यक्तित्व एवं रचनाकर्म के विभिन्न आयामों को संक्षेप में किंतु समग्रता में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है जो शास्त्रीजी के साहित्यिक अवदान को रेखांकित करने के प्रारंभिक चरण के रूप में बहुत महत्वपूर्ण है। यथासमय इस दिशा में विस्तृत कार्य तो होगा ही, यह प्रथम सोपान एक अभिनंदनीय प्रयास है। यह पुस्तक निश्चय ही त्रिलोचनजी पर भविष्य में शोधकार्य करने वालों के लिए मार्गदर्शन का कार्य करेगी।
अध्याय एक में शास्त्रीजी के जन्म से अवसान तक के संघर्षपूर्ण जीवन का चित्रण है। लेखक उनके जीवन के अनेक पक्षों यथा; पहलवानी, कविताई, सम्पादन कौशल, लगातार गरीबी, शिक्षा, क्रांतिकारियों से कुछ काल तक सम्पर्क, आजीविका हेतु साहित्यिक संस्थाओं ‘मुक्तिबोध सृजनपीठ” आदि में कार्य, सम्मानों का सिलसिला आदि से परिचय कराता है। इसी फक्कड़ाना जीवन से उद्भूत उनके रचनाकर्म पर भी प्रकाश डालता है। शास्त्रीजी ने कभी जीवन में आर्थिक पक्ष को महत्व नहीं दिया था। इस कारण उनका जीवन संकटमय रहा। यह तथ्य बार-बार उनकी कविताओं में भी व्यक्त हुआ है।
शास्त्रीजी के पात्रों के संबंध में प्राक्कथन में आए इस वाक्य पर लेखक ने अध्याय एक में विस्तार से चर्चा की है “ शास्त्रीजी ने कथ्य में कभी किसी महानायक की खोज नहीं की अपितु, सामान्य नगई और चम्पा जैसे पात्रों को नायक विशेष बनाने का प्रयास किया”।
अध्याय तीन “ त्रिलोचन की छान्दस चेतना”- लेखक के अनुसार शास्त्रीजी की कविताएँ मूल रूप से छन्दोबद्ध कविताएं हैं। उनकी कविता का विकास निराला के प्रगीत, शेक्स्पीयर के सानेट से होता हुआ अपनी बानी बोली में तुलसी तक आया।अब उन्होंने अपनी जनपदीय बोली(पश्चिमी अवधी) में अपने मन के अनुकूल बरवै छंद का अभ्यास किया” (पृ 19)। लेखक उन्हें प्रगतिशील छांदस परंपरा का कवि मानता हैं।
शास्त्रीजी न किसी विशिष्ट काव्य विधा के पक्षधर थे न किसी विचारधारा के। वे सच्चे अर्थों में लोक के दुख-सुख को कविता में लोकभाषा में ही व्यक्त करने वाले कवि थे। लेखक को 1989 से 1997 तक उनके सान्निध्य का लाभ प्राप्त हुआ था। इतने लंबे काल में लेखक ने उनके जीवन और रचनाकर्म को निकट से देखा समझा। इस कारण भी पुस्तक में काल्पनिकता अथवा कयासों के स्थान पर वास्तविक तथ्यों की उपस्थिति पर सहज ही विश्वास किया जा सकता है। एक स्थान पर कवि के एकाकीपन की स्वयं कवि द्वारा ही बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति है। पता चलता है कि जीवन के झंझावातों को जीवटता के साथ झेल जाने वाला महान कवि अंदर से बहुत व्यथित था और व्यथा को चुपचाप सहे जा रहा था। त्रिलोचनजी के विचारों का केन्वास बहुत विस्तृत था।कालिदास, तुलसी, शेक्सपीयर, गुरुदेव रवीन्द्र आदि से लेकर लेनिन, मार्क्स, स्वामी विवेकानंद के बारे में उनसे कोई भी घटों बात कर सकता था” (पृ 24)। लेखक के अनुसार शास्त्रीजी नई कविता के रूपवादी स्वरूप से बच कर निकल जाते हैं। उनका स्वर ग्राम चेतना से संपृक्त है। इस अध्याय में लेखक को वे कवि से अधिक भाषाशास्त्री दिखाई देते हैं।
अध्याय चार में लेखक ने त्रिलोचनजी की अवधी कविताओं का, उनके अवधी काव्य-संग्रहअमोलाके आधार पर गहन विश्लेषण किया है। पूर्णतः लोक से उपजी उनकी विषयवस्तु, प्रयुक्त भाषा और लेखक पर तुलसीदासजी के प्रभाव का चित्रण किया है। यहाँ शास्त्रीजी की विशिष्ट अवधी भाषा पर डा.विश्वनाथ त्रिपाठीजी से लेखक का मतवैभिन्य दिखाई देता है। लेखक के अनुसार कालांतर में शास्रीजी ने अपनी लोकभाषा को कुछ सरल किया है ताकि वृहद पाठक वर्ग उसे समझ सके। इसे लेखक उनकी प्रगतिशील सोच का एक प्रमाण मानता है।
पंचम अध्याय में त्रिलोचनजी के कविता में ग्राम्य जीवन चित्रण के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है। इस तथ्य की ओर इंगित किया गया है कि शास्त्रीजी की हिन्दी कविता में भी अवधी के शब्दहीरे की तरह जड़े हुए हैं
लेखक अपने विश्लेषण से इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि शास्त्रीजी मार्क्सवादी हों या न हों, वे व्यापक मार्क्सवादी चेतना को स्वर देने वाले रचनाकार हैं। इस अध्याय में लेखक ने त्रिलोचनजी की ग्राम्य जीवन से जुड़ी कविताओं से अत्यंत जीवंत चित्र उद्धृत किए हैं। इन पृष्ठों से गुज़रते हुए प्रतीत होता है कि त्रिलोचनजी की कविताओं में सामाजिक सरोकार किसी उग्र क्रांतिकारी वेष में नहीं हैं पर वे वहाँ हैं, सहज रूप में उपस्थित।
छठे और सातवें अध्याय में त्रिलोचनजी की गद्य भाषा पर विचार किया गया है। आश्चर्य होता है यह जानकर कि वे अपनी भाषा के प्रति इतने सजग थे कि उनकी कई कविताओं में उन्होंने भाषा, शब्द आदि के बारे में गहराई में जाकर लिखा है जो संभवतः किसी भी अन्य कवि ने नहीं किया है। लेखक के शब्दों में उनकी काव्य भाषा संस्कृत, उर्दू, अरबी, फारसी, अंग्रेजी जैसी अनेक भाषाओं से निर्मित होती है लेकिन अवधी उनकी मातृभाषा है, अवधी का लोक जीवन उनका अपना अनुभव लोक है। भाषा के क्षेत्र में शास्त्रीजी तुलसी को अपना आदर्श मानते हैं और उन्हीं के पद्चिन्हों पर चलते हैं।
मात्र एक सौ चार पृष्ठों की पुस्तक त्रिलोचनजी के सम्पूर्ण रचनाकर्म और व्यक्तित्व का विस्तृत लेखाजोखा नहीं हो सकती। किंतु इसमे उनके जीवन और सृजन के सभी आयाम बीज रूप में उपस्थित हैं। ये बीज भविष्य में शोधकर्मियों के हाथों पल्लवित होकर इस अद्भुत व्यक्तित्व का विस्तृत परिचय साहित्य जगत को उपलब्ध करा सकते हैं। इस अर्थ में यह पुस्तक महत्वपूर्ण है। पुस्तक लेखन निश्चय ही श्रमसाध्य कार्य रहा होगा। इस महत्वपूर्ण पुस्तक के प्रकाशन के लिए लेखक और उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान दोनों बधाई के पात्र हैं।
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पुस्तक- ‘त्रिलोचन शास्त्री’, लेखक डा.भारतेन्दु मिश्र, प्रकाशक- उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण – 2018, मूल्य- रु 105/-
                                                   राजेन्द्र नागदेव
                                                   डी के 2 – 166/18, दानिशकुंज
                                                   कोलार रोड, भोपाल-  462042
                          मो 8989569036, ईमेल- raj_nagdeve@hotmail.com





  

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