सोमवार, जुलाई 08, 2013

समीक्षा : गँवई मन के गीत


भारतेन्दु मिश्र
हिन्दी गीत /नवगीत के सन्दर्भ में अत्यंत सार्थक नाम अवध बिहारी श्रीवास्तव का है।हल्दी के छापे के लगभग दो दशक बाद पिछले दिनों “मंडी चले कबीर” नाम से अवधबिहारी जी का दूसरा गीत संग्रह प्रकाशित हुआ है।इस संग्रह मे कुल 77 गीत हैं।इन गीतों का स्वर अवध के किसानों के बदलते परिवेश से हमें जोडता है।कवि अपने समाज की विडम्बनाओ को और आम गँवई मन को बडे मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करता है।गँवई मन का अर्थ है-किसान चेतना,गाँवों का बिखराव,आर्थिक सामाजिक असंतुलन,छीजती ग्राम्य संस्कृति और इस दौर की बाजारवादी प्रगति के बीच में फँसा गँवई मन वाला आम आदमी।रीतिकालीन कविता मे सेनापति का बारहमासा बहुत चर्चित रहा है किंतु अवधबिहारी जी ने नवगीतों के माध्यम से जो समसामयिक बारहमासा प्रस्तुत किया है वह भी बहुत स्वागत योग्य है।जिस प्रकार कैलाश गौतम और महेश अनघ जैसे नवगीतकारों ने नवगीत के ग्राम्य और आंचलिक पक्ष को हमारे सामने उजागर किया है कदाचित उसी क्रम में अवधबिहारी जी समकालीन किसान चेतना की गीत परम्परा को आगे ले जाते हुए दिखाई देते हैं,मगर वो जनवादी राजनीति के जन गीतकार नही हैं।
प्रगतिशील चेतना के गीत को ही नवगीत कहा जाता है।मंडी चले कबीर के अधिकांश गीत हमारी गँवई चेतना की मर्मव्यथा को बहुत सहज ढंग से झकझोरते हैं।अवध के गाँवों की बोली और लोक जीवन की विविध छवियाँ तथा उन छवियों में से झाँकता सजग कवि मन सबको आकर्षित करता है।भाषा शिल्प और छन्द तो कमाल का है ही।अनेक गीतों मे तुलसीबाबा वाला चौपाई छन्द कवि की कविताई मे चार चाँद लगा देता है- मुझे सुखी रखता है मेरा/अपना गँवई मन।/सीखा नही व्याकरण कोई/पहना नही आभरण कोई/कविता मे सच कहना सीखा/तुलसी बाबा से/गाँधी बाबा से सीखा है/सादा रहन सहन।कवि ने चैत-बैसाख-असाढ-सावन से लेकर फागुन तक जो ऋतु परिवर्तन के ब्याज से गँवई मन की संवेदना के अनेक गीत रचे हैं,उनका अलग ही महत्व है।ये गीत- नवगीत के खाते में अवध के गाँव को देखने समझने की एक नई दृष्टि से हमें जोडते हैं।जैसे-
उतरा बहुत कुँओं का पानी/जेठ तप रहा गाँव में। पूस माह का एक चित्र देखें- गन्ने के रस पर दिन बीता/रात बिताएँगे नारायण/काकी कठरी ओढे चुप है/काका बाँच रहे रामायण/हाँथ पसारें कैसे ?जकडी मर्यादाएँ पाँव में/काँधे पर अभाव की लाठी/पूस घूमता गाँव में। क्वार का एक चित्र इस प्रकार है-
पकने लगी धान की बाली /थिरने लगा ताल का पानी/दिखने लगीं मछलियाँ जल में/फसलें अब हो गयीं सयानी/कच्चे दूधो वाले दाने/भुने नीम की छाँव में/नए अन्न की गमक उड रही/क्वाँर आ गया गाँव में। हालाँकि गाँव मे लगातार बदलाव हो रहे हैं बिखराव के बावजूद अभी तक प्राकृतिक रूप में बहुत कुछ बचा हुआ है।वहाँ लोग अक्सर बैठते बतियाते हैं।कवि ने बारहों महीने मे आने वाले बदलाओ की सुन्दर प्रस्तुति यहाँ की है।इसके अतिरिक्त सत्यनाराण की कथा,नदी का घाट,बाबा की उदासी-बहू-कोठरी-लडकी के कई बिम्ब इस संग्रह में हैं।शीर्षक गीत का अंश देखिए- कपडा बुनकर थैला लेकर/मंडी चले कबीर/कोई नहीं तिजोरी खोले /होती जाती शाम/उन्हे पता हिअ कब बेचेंगे/औने-पौने दाम/रोटी और नमक थैलों को/ बाजारों को खीर। कामगर को वाजिब दाम कभी नही मिला हमारे देश में।व्यापारी कामगर के हिस्से की सारी मलाई सदैव उडाते रहे आज भी यही कुछ चल रहा है।ये गीत अवधबिहारी जी की ही तरह बहुत सहज सरल हैं।यह अनगढ सहजता उनकी कविताई की सीमा भी है।लाक्षणिकता और जटिल बिम्बो की ओर कवि नही जाता।प्रतीको वाली भाषा यहाँ कवि नही अपनाता।अर्थात कवि अपनी और अपने पाठको की तमाम काव्य क्षमताओ को भी जानता है।देश काल बोध के गीत तो यहाँ हैं ही।उडीसा की सुमित्रा बेहरा का पता भी अवधबिहारी जी को मालूम है जिसने भुखमरी के चलते अपनी लडकी को बेच दिया था।उस मार्मिक संवेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति देखिए- मैं उडीसा की सुमित्रा बेहरा हूँ/माँ नहीं/रोटियों के लिए मैने/ बेच दी हैं लडकियाँ।
अंतत: सभी गीत प्रेमियो को अवधबिहारी जी के इस गीत संग्रह का स्वागत करना चाहिए।
शीर्षक:मंडी चले कबीर/कवि:अवधबिहारी श्रीवास्तव/संस्करण;2012/मूल्य:200/
प्रकाशक:मानसरोवर प्रकाशन248/12,
शास्त्री नगर,कानपुर


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