रविवार, अप्रैल 15, 2012


समीक्षा:-
बुन्देली लय के नवगीत
हेश अनघ हमारे समय के एक महत्वपूर्ण नवगीतकार हैं। झनन झकास के बाद अब कनबतियाँ शीर्षक से उनका दूसरा नवगीत संग्रह प्रकाशित हुआ है। महेश जी अपनी माटी के गीतकार हैं उनके इस संग्रह मे भी बुन्देली भाषा की लय और बिम्ब साफ दिखाई देते हैं। महेश जी के नवगीत ग्वालियर और उसके आसपास की माटी की खुशबू लिए हुए हैं। इसका अर्थ यह नही कि वे बुन्देलखंड तक सीमित है बल्कि कवि का अपनी जमीन पर जमे रहकर पूरे परिवेश को सम्बोधित करना बडी बात होती है। अपने पहले गीत मे महेश जी कहते हैं- समाधान तो नही/मगर जीने की कोशिश है
हरी भरी उम्मीदें हैं/लय भी है-बन्दिश है खारे जल से मै खुशियो के /पाँव पखारा करता हूँ।
खारे जल से खुशियो के पाँव पखारने का अर्थ है आँसुओ से खुशियो का स्वागत करना या दु में सुख के पल जी लेना। ऐसा तब होता है जब मनुष्य को बहुत बडे श्रम के बाद किसी सुखद क्षण की प्राप्ति या उसकी प्रतीक्षा होती है। इस तरह कवि और आगे अपने कविताई के प्रयोजन को स्पष्ट करने का प्रयास करता है।साधना के बिना सुन्दर गीत नही बनते।गोदोहन का विरल चित्र देखिए इसे-भारतीय आंचलिक सांस्कृतिक पहचान और सन्दर्य-छवि के रूप मे देखिए- नन्हे की किलकारी सुनकर/गैया रम्भाई चारो थन पी लें/दोपाए चौपाए भाई भौजी दूध नहाई अम्मा मुस्काई किस्से चले कवित्त चले चुटकुले चले। हामारा लोक अभी बहुत कुछ वैसा ही है जैसा कि हमारे बडे बुजुर्गो के मुहावरो मे सुना जाता रहा है। दूधो नहाना सांस्कृतिक रूप से समृद्धि का प्रतीक है। महेश अनघ के गीतो की यही खूबी मन को सहज रूपसे आकर्षित करती है ।महेश के गीतो मे ध्वन्यालंकार की बडी मोहक शब्द योजना रहती है-मानो शब्द बजते हैं।छन्द एकदम सधा होता है।गेयता की दृष्टि से भी कोई कमी नही होती लेकिन अक्सर महेश जी के गीतो मे समानार्थी शब्दो का ध्वन्यात्मकता के लिए निरर्थक प्रयोग भी मिलता है उदाहरणार्थ-खनन-खनन,चिहुँक-चिहुँक,ठुमक-ठुमक,फुदक-फुदक , जगमग -जगमग,
सोन्धी-सोन्धी आदि। अब देखिए महेश जी कहते हैं- बारहमास रजो गुण है/हम हर मौसम में फलते हैं दाने का न्योता देने/फूलो की तरह निकलते हैं माटी सूरज हवा नमी है/साहब जी आना पकी फसल जैसा/पकने का मन हो।
यहाँ पकने की जगह चखने हो सकता है।यह तो हुई प्रूफ की गलती उसके लिए महेश जी से क्या कहें लेकिन हर समय रजो गुणी होना यानी हर समय गीत लिखते रहना खतरनाक है। हर समय खिलनेवाले फूल की तरह हर मौसम मे यदि गीत पैदा हो भी रहे हैं तो उनमे क्या नैसर्गिक कविताई की गन्ध और अर्थवत्ता बची रह सकती है।यह महेश जी को बताना होगा। इसके बावजूद महेश अनघ के इन गीतो में जो गीत बिम्ब उभरते हैं वे उनके अपने निजी परिवेश के हैं,जिनका चयन बहुत ईमानदारी से किया गया है।कही कही पर समानार्थी शब्दो का दुहराव भी गीत की कलात्मकता को क्षीण करता है। यथा-इसके विपरीत जहाँ कहीं महेश जी अपने मूल सांस्कृतिक बिम्ब को पकडते हैं वहाँ वो मार्मिक हो जाते हैं- नैना मूँदो नेह उघारौ/महके मान तुम्हारो रण से जो मोती लाये हो/हमरे आँचल डारौ जो जीतीं नीरा जागीरें/रस- चौरस पर हारौ।
सब दरबार उठी राजा जी /अब रनिवास पधारो।
तो ये है असली बुन्देली संस्कृति की गीत पंक्तियाँ। इसी प्रकार गीतो से सार्थक होता है इस संकलन का शीर्षक-कनबतियाँ-अर्थात कान मे कही सुनी जाने वाली बातें। इन कनबतियों मे प्यार है-शिकायत है-चुहल है –उत्सवधर्मिता है-सत्ता की आलोचना है-माने वह सब कुछ है जो एक श्रेष्ठ नवगीत संकलन से आपेक्षित है।कनबतिया का अर्थ कुछ कुछ गजल जैसा (कान मे की जानेवाली गुफ्तगू) यानी एकांत में निवेदन की जाने वाली बात होता है। बतिया है तो संवादधर्मिता स्वयमेव आ गयी है।बहरहाल इस संकलन मे कवि के 101 गीत नवगीत संग्रहीत हैं। एक और कनबतिया में दरबार का रूप देखें यहाँ मंत्री राजा के ऊपर बैठे हैं सामंत हैं हाकिम हैं सब अपने मन के मालिक हैं बिल्कुल अन्धेरनगरी के चौपटराजा की तरह जहाँ गरीब के छप्पर /छत की मरम्मत की अर्जी पर सुनवाई करने वाला कोई नही है-
एक छोर सामंत विराजे/एक चोर पर हाकिम थे एक चूर पर चारण चाकरब रूर मे रिमझिम थे चौथा खम्भा बजा रहा था/जैजैवंती धुन।
.......... चर्चा मे शामिल थे दादुर/मसला टाँग खिचाई था जिसकी चली दलील अंत में/वह जोरू का भाई था फटी छान की अर्जी लेकर/ठाडे रहे अपुन।
श्रमजीवी महिला घूरनी ,रमकलिया जैसे पात्र और तमाम ऐसे घर-खेत-ओसारे-खलिहान-गाँव के गीतचित्र महेश अनघ के इस दूसरे गीत संग्रह मे बखूबी देखने को मिलते हैं।


शीर्षक:कनबतियाँ(नवगीत संग्रह)
कवि: महेश अनघ
प्रकाशन:अनुभव प्रकाशन,गाजियाबाद
मूल्य:160/,वर्ष:2011

2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी समालोचना.महत्वपूर्ण भी.बधाई और धन्यवाद आ.भारतेन्दु जी.कनबतियाँ के प्रति उत्सुकता और बढ़ गई है.आ. महेश अनघ जी को भी बधाई.

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  2. धन्यवाद गीते जी,इस विषय मे अनघ जी से बात नही हो पायी।

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