मंगलवार, जनवरी 19, 2010

नवगीतकार डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा से भारतेन्दु मिश्र की बातचीत

मै तो कविता को एंज्वाय करता हूँ--डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा

आजकल साहित्यिक मासिक पत्रिका के सम्पादक,अनेक विधाओ के यशस्वी रचनाकार,डाँ योगेन्द्रदत्त शर्मा न केवल श्रेष्ठ नवगीतकार है बाल्कि कथाकार के रूप मे भी चर्चित रहे है । अगस्त 2010 मे योगेन्द्र जी अपने जीवन के साठ वर्ष पूर्ण कर रहे है,नवगीतकार योगेन्द्रदत्त शर्मा की प्रतिभा से प्रभावित होकर डाँ.शम्भुनाथ सिंह ने नवगीत दशक योजना मे उन्हे प्रमुख कवि के रूप मे संकलित किया।योगेन्द्रदत्त जितने अच्छे रचनाकार है उतने ही श्रेष्ठ मनुष्य भी है। आज 25-12-2009 को उनके पिताश्री पं.कन्हैयालाल मत्त की जयंती के अवसर पर प्र्स्तुत है -उनके आवास पर की गयी बातचीत के प्रमुख अंश-
भारतेन्दु मिश्र :योगेन्द्र जी आपकी की षष्ठिपूर्ति निकट है,आपकी छवि नवगीतकार,कथाकार,कुशल सम्पादक और विचारक की रही है- आप साहित्य की कई विधाओ से जुडे रहे है।आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : शुरुआत तो नवीं क्लास मे पढता था तभी हुई। मेरे घर मे बचपन से ही कविता का माहौल था। पिताश्री पं.कन्हैयालाल मत्त स्वयं अच्छे कवि थे तो उन दिनो राष्ट्रीय कविताओ का दौर था ,1965 मे चीन युद्ध चल रहा था।उसी समय पहली कविता बनी।........शीर्षक था।इसको हास्यास्पद न समझे कि जैसे मैथिलीशरण गुप्त जी या बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द जी ने बहुत कम आयु मे कविता लिखनी शुरू कर दी थी,वस्तुत:उस समय मेरे घर का वातावरण ऎसा था।अक्सर घर मे गोष्ठी जैसा वातावरण होता था।
भारतेन्दु मिश्र : तो यह पहली कविता क्या छन्दोबद्ध थी,गीत के शिल्प मे थी?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : घर मे छन्दोबद्ध कविता का ही माहौल था। पिता जी गीत लिखते थे तो छन्द मुझे विरासत मे मिला उसे गीत तो नही कह सकते हाँ छन्दोबद्ध कविता अवश्य थी। उन्ही दिनो एक नाटक लिखमारा था,नाटक क्या छोटी नाटिका थी- तो वह कविता और नाटिका दोनो कालेज की मैगजीन मे छपने के लिए दे दी। पं.हरप्रसाद शास्त्री जी हमारे पिता जी के मित्र थे वही उसका संपादन देखते थे।हुआ ये कि कविता तो कही खो गयी किंतु वह नाटिका उन्होने छाप दी। दोनो रचनाओ की पृष्ठभूमि चीन युद्ध ही था।
भारतेन्दु मिश्र : योगेन्द्र जी आज पीछे मुडकर देखते हुए कैसा लगता है,खास कर उस माहौल को याद करते हुए,या कि स्व.मत्त जी को याद करते हुए?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : दरअसल मै जो कुछ भी हूँ वह अपने पिताजी के कारण हूँ।शुरुआत मे मै विज्ञान का विद्यार्थी रहा , साहित्य की ओर आने की संभावना बहुत कम होती है विज्ञान के छात्रो मे परंतु घर मे ऎसा वातावरण था कि मै साहित्य से जुडता गया। पिता जी रिटायर हो गये थे वो पढते बहुत थे उनकी आँखें कमजोर हो गयी थी,फिर भी अखबार मे या किसी किताब मे धुँधलके मे भी आँखे गडाये घंटो बैठे रहते थे। फिर वो मुझसे अपनी रचनाये फेयर कराने लगे। तो इस प्रकार साहित्य की भाषा सीखने लगा, बहुत सारे शब्दो का ज्ञान नही होता था तो उन्ही से पूछता था। साहित्य की पुस्तको मे रुचि हुई तो साहित्य पढने लगा । भाषा मैने पिता जी से ही सीखी।
भारतेन्दु मिश्र : उन दिनो कौन से साहित्यकार आपके घर आया करते थे?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : हाँ पिताजी के कारण घर मे सहित्याकार आते रहते थे।बडा सुन्दर माहौल था। स्थानीयो मे खासकर प्रसिद्ध कथाकार से.रा.यात्री,गीतकार प्रेम शर्मा,कुँवर बेचैन और देवेन्द्र शर्मा इन्द्र,पाल भसीन जैसे श्रेष्ठ साहित्यकार अक्सर आया करते थे। मेरी शुरुआत थी तो इसीप्रकार मुझे भाषा और साहित्य के संस्कार मिलते रहे।
भारतेन्दु मिश्र : आपकी कविताएँ डाँ.शम्भुनाथ सिंह द्वारा सम्पादित नवगीत दशक 3 मे संकलित है,उसी मे राजेन्द्र गौतम है डाँ.सुरेश जैसे और भी कई महत्वपूर्ण कवि होंगे, कई लुप्त हो गये। प्रश्न यह है कि उस समय की रचनाएँ आपको अधिक प्रिय लगती है या आज कल जो लिख रहे है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :.देखिए सुखद कहें या दुखद,पता नही आप किस रूप लेंगें ,मेरे साथ यह स्थिति रही है कि मुझ पर किसी अपनी रचना का दो या तीन दिन से अधिक प्रभाव नही रह्ता उसके बाद वही रचना सामान्य लगने लगती है। जहाँ तक बात है रचनाशीलता की तो लगातार मेरी रचनाशीलता बरकरार है। कभी कभी अंतराल भी हो जाता है-साल साल भर का, लेकिन रचनात्मकता बनी हुई है। गीतो मे पहली पुस्तक खुशबुओं के दंश आयी फिर परछाइयो के पुल,और फिर दिवस की फुनगियो पर थरथराहट प्रकाशित हुई। गीत के अतिरिक्त कहानियो मे विसंवाद और परदा बे परदा मेरे प्रकाशित कथा संग्रह है।
भारतेन्दु मिश्र : तब के गीत और अब के गीत मे प्रयोगधर्मिता के आधार पर क्या अंतर महसूस करते है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : मैने कोशिश यह की कि मै अपने गीतो को रचनाशीलता के स्तर पर अलग रख सकूँ अपनी मौलिकता को लेकर चलूँ,पता नही कितना सफल हुआ हूँ,यह तो आप जैसे समीक्षक ही बता सकते है। पहले के गीतो पर पिता जी का बहुत प्रभाव था मैने बहुत परिश्रम से अपनी मनस्थिति को बदलकर उनके प्रभाव से स्वयं को हटाया। प्रयोगधर्मिता के आधार पर तब मे अब मे अंतर तो है ही,अब कितना और कैसा अंतर है यह तो दूसरे लोग ही तय करेंगे।
भारतेन्दु मिश्र : गीत के अतिरिक्त लम्बी कविताएँ,गजले आदि भी आपकी रचनाशीलता का हिस्सा रही है तो लम्बी कविता मे जो रचनात्मकता को विस्तार मिलता है उसका निर्वाह आपने कैसे किया?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : अरसा हो गया,अब जब पीछे मुडकर अपने लेखन को देखता हूँ तो लम्बी कविताएँ हमने लिखी है कुछ ऎसी कविताएँ भी है जिनमे तुकांत का भी निर्वाह होता रहा । मैने एक खण्डकाव्य लिखा था जिसका शीर्षक था गवाक्ष जिसमे मैने एक अध्याय मे निराला के तुलसीदास वाले छन्द का प्रयोग किया है। तो मैने अपनी लम्बी कविताओ मे तुक और लय को बचाकर रखा है। एक मेरी बहुत लम्बी कविता है जन्मदिन पित्रऋण और ऋतुचक्र,तो उसमे भी तुकांत का निर्वाह करने की कोशिश की है ,वह रचना मुझे प्रिय भी लगती है। एक और मेरी रचना थी गुमशुदा फागुन वह भी अब मुझे अधिक अच्छी लगने लगी है मै यही सोच रहा हूँ कि कुछ ऎसी ही प्रगीतात्मक रचनाएँ और लिख सकूँ..
भारतेन्दु मिश्र : योगेन्द्र जी यह गद्य का युग है,कविता भी गद्यात्मक हो गयी है। आप संपादक भी है तो ऎसी कविताओ के बारे मे आपकी क्या राय है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :मेरी राय बहुत अच्छी है। लोग बहुत अच्छी लिख रहे है,कुछ हमारे गीतकार मित्रो की राय हो सकती है कि ब्लैंकवर्स या गद्यकविता अच्छी नही होती किंतु मै तो कविता को एंज्वाय करता हूँ। मैने भी कुछ ऎसी कविताएँ लिखी है-अभी बहुत कुछ ऎसा है जो छप नही पाया। देखिए हमारे कई मित्र है जो कहानियाँ लिख रहे है हमे उनका लेखन पसन्द है वैसे ही छन्दहीन या गद्यकविता की बात है।
भारतेन्दु मिश्र : इनदिनो जो लोग लिख रहे है उनमे कौन से कवि आपको अच्छे लगते है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : देखिए आजकल जैसी सम्मानित साहित्यिक पत्रिका का संपादन करते हुए जो रचनाएँ आती है उन्हे पढ्ता हूँ,इसके अतिरिक्त बहुत अधिक समय नही मिलता तो भी समकालीन अधिकांश कवियो की रचनाएँ देखने को तो मिल ही जाती है। मै सबको छन्दहीन या छन्दोबद्ध कविता को उसकी गुणवत्ता के आधार पर चुनता हूँ। मै सर्वेश्वरदयाल सक्सेना,धर्मवीर भारती को बहुत पसन्द करता हूँ,कुँवर नारायण है, समकालीनो मे अरुण कमल है जो मुझे बहुत पसन्द है। इब्बार रब्बी,मंगलेश आदि की कुछ कविताएँ मुझे अच्छी लगती है।
भारतेन्दु मिश्र : गीतकारो मे कौन से नाम है जो आपको पसन्द है,और जो ठीक ठिकाने के गीत लिख रहे है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : गीतकारो मे जो ठीक ठिकाने के गीत लिखने वालो मे जो मेरे बाद के नये कवि है उनमे यश मालवीय अच्छा लिखते है,हरीश निगम है,सुधांशु उपाध्याय है,एक रचनाकार और है शिवाकांत मिश्र विद्रोही उनकी रचनाएँ भी मुझे बहुत पसन्द आती है बाकी और कई मेरे समकालीन है ,कई वरिष्ठ है जिनकी रचनाएँ मुझे पसन्द है। अन्यथा न ले तो आपकी रचनाएँ भी मुझे पसन्द आती है।
भारतेन्दु मिश्र : मै तो बहुत दिन हो गये गीत लिख ही नही पा रहा हूँ....
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : नही,आपको लिखते रहना चाहिए,आप अच्छा लिखते है।
भारतेन्दु मिश्र : डाँक्टर साहब, आपका नाम कहानियो से भी जुडा रहा है,कुछ लोग तो आपको कथाकार के रूप मे ही जानते है एक बार कथादेश के संपादक हरिनारायण से आपके बारे मे बात होरही थी तो उन्होने कहा कि मै तो योगेन्द्र जी को कथाकार के रूप मे ही जानता हूँ ,कथा लेखन की शुरुआत कैसे हुई?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : शुरुआत उसी समय हुई थी,जब कविता की हुई थी। सबसे पहले एक व्यंग्यात्मक लघुकथा लिखी थी जो सारिका के जुलाई सन 1975 अंक मे छपी थी।परन्तु वह इमरजेंसी का दौर था और वह मेरी पहली कहानी सेंसर की भेंट चढ गयी। अब उसकी कोई प्रति नही है।याद करके फिर से लिखना पडेगा। फिर अगली कहानी सारिका के नव लेखन अंक अप्रैल 1976 मे छपी।फिर आगे मै लिखता गया। मेरे दो कहानी संग्रह भी छपे –स्मृति संवाद और परदा बेपरदा। तीसरा संग्रह भी प्रकाशन की तैयारी मे है। तो यह सच बात है कि कुछ लोग मुझे केवल कथाकार के रूप मे जानते है और कुछ लोग केवल गीतकार के रूप मे जानते है। ऎसे ही मेरे एक मित्र थे रमेश बत्रा तो उन्हे भी आश्चर्य हुआ,उन दिनो मै अपनी थीसिस पर काम कर रहा था –उन्होने पूछा-आपका क्या टाँपिक है-मैने बताया-साठोत्तर हिन्दीगीत काव्य मे संवेदना और शिल्प- तो वे अचकचाये बोले तुम्हारा और कविता का क्या संबन्ध तो मैने बताया- मूलत: तो मै कवि ही हूँ।
भारतेन्दु मिश्र : आप आजकल से लम्बे अरसे सम्पादन से जुडे रहे है।वहाँ विभिन्न लोगो से- बडे छोटे साहित्यकारो से संपर्क होता रहा होगा,क्या सीमाएँ होती है खासकर सरकारी पत्रिका के सम्पादक के सामने?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : देखिये सम्पादक के सामने कुछ न कुछ तो सीमाएँ रहती ही है। जो निजी संस्थानो की पत्रिकाएँ है ,उनके सम्पादको के सामने भी कुछ अपनी तरह के दबाव रहते है। ऎसा नही है कि सिर्फ सरकारी पत्रिकाओ पर ही दबाव रहते है। यहाँ सरकारी पत्रिका मे ध्यान रखना होता है कि सरकार की तीखी आलोचना न हो। गाली-गलौच की भाषा न हो। आमतौर पर स्वस्थ आलोचना स्वीकार होती है यही थोडी सी सीमा आप कह सकते है। मैने ऎसे सम्पादको के साथ काम किया है जो थोडा सा जोखिम भी उठा लेते थे। तो वह संस्कार मुझे भी मिल गया और मै भी कभी-कभी ऎसी कोशिश कर लेता हूँ।
भारतेन्दु मिश्र :आपने शुरुआत किन सम्पादको के साथ की थी और पंकज विष्ट के साथ आपके कैसे संबन्ध रहे?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :शुरुआत मे जब मै आजकल से जुडा तो सम्पादक थे भगीरथ पांडेय और सहायक थे पंकज विष्ट । भगीरथ पांडेय कोई रुचि लेते नही थे। पंकज ही देखते थे उनसे मैने बहुत सीखा। मै उनका बहुत सम्मान करता हूँ। मैने उनसे सीखा कि रचना को ही वरीयता देनी चाहिए,रचनाकार को नही। रचना के चयन मे किस तरह से निर्मम होकर तटस्थता बरतनी है यह मैने उनसे ही सीखा,और यह भी कि पत्रिका को वरीयेता देनी है न कि अपने परिचितो को। किसी से द्वेष भी न हो किसी से राग भी न हो बस रचना ही ध्यान मे रहे। व्यक्तिगत रूप मे वे नैतिकतावादी किस्म के आदमी है। परंतु उस दौरान जब कोई उग्र होने लगता था तो वह भी पीछे नही रहते थे। बहुत प्यार करने वाले और सहायता करने वाले व्यक्ति है पंकज जी । मै उन्हे अपने बडे भाई के रूप मे ही देखता आया हूँ ।
भारतेन्दु मिश्र : इसके साथ ही प्रवीण उपाध्याय के साथ भी आप रहे ?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :प्रवीण जी मेरे अच्छे मित्र है सहकर्मी है,लेकिन हम दोनो आजकल मे एक साथ कभी नही रहे यह इत्तिफाक है। हम दोनो के बीच अच्छी समझदारी रही है जब वो पत्रिका मे रहे तो मै बाहर से उनका सहयोग करता रहा और अब जब मै पत्रिका मे हूँ तो उनका परोक्ष सहयोग मुझे मिल जाता है। हम दोनो के संबन्ध परस्पर ऎसे ही है।
भारतेन्दु मिश्र : योगेन्द्र जी, गाजियाबाद के साहित्यकारो से आपके रचनात्मक सरोकार किस रूप मे जुडे रहे,पिता श्री मत्त जी के समय से ही या बाद मे,गीताभ नामक संस्था से भी आप जुडे है और भी लोग है यहाँ जो अच्छा लिख रहे है उनके बारे मे आपकी क्या राय है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :जब मैने लिखना शुरू किया था तब तीने चार लोग मेरे समकक्ष थे धनंजय सिंह मुझसे सीनियर थे श्याम निर्मम मेरे सहपाठी है,हम लोग साथ-साथ पढते भी थे और कविता भी करने लगे थे। हम लोग ट्रेन से दिल्ली जाते थे,अक्सर ही मुलाकाते होती रहती थी।कभी-कभी ट्रेन मे ही हम लोग कविताएँ भी कह लेते थे। कभी-कभी मिटोब्रिज से शाहदरा तक आते-आते नई कविता बन जाती थी। ऎसा संयोग रहा कि दोस्ती भी निभती थी,रचनात्मक आदान-प्रदान भी होता रहता था।उन दिनो एक संस्था भी थी इंगित नामक उसमे भी हम लोग जुडते थे। अब पिछले आठ-दस वर्षो से गीताभ संस्था है जो काम कर रही है। उसमे भी तरह–तरह के लोग आते है,कुछ वरिष्ट उम्र के रचनाकार भी उसमे जुडे है जिनकी रचनाएँ शिथिल होती है,पर उनका भी महत्व होता है। संस्था का काम तो ऎसे ही चलता है। बाकी यहाँ पराग जी है,डाँ.मधु भारती है,कमलेश भट्ट कमल है,वेद प्रकाश वेद है ये सारे लोग अच्छा लिखने वाले है।
भारतेन्दु मिश्र : इन्द्र जी को आप कबसे जानते है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :अपने पिता जी के बाद मै आदरणीय इन्द्र जी को ही स्मरण करता हूँ,मैने उनसे बहुत कुछ सीखा है। उनका अनुसरण भी किया है,वो बहुत ही वरिष्ठ रचनाकार है। बहुत कुछ सिखाते है-बिना सिखाये भी उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। अधिक क्या कहूँ रचनाकार के नाते मै उनका ऋणी हूँ।
भारतेन्दु मिश्र :एक गजल संग्रह भी आपका आया था-नकाब का मौसम-उसपर आपको आर्य स्मृति पुरस्कार भी मिला था,तो उसके बारे मे कुछ बताये?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :हाँ पुरस्कार तो जरूर मिला ,मै यह तो नही कहूँगा कि मुझे अच्छा नही लगा क्योकि यह तो अपने साथ बेईमानी होगी अपने साथ।हाँ इतना अवश्य कहूँगा कि पुरस्कार के बाद मै कोई बडा कवि हो गया हूँ ऎसा नही लगा। निर्णायको को मेरी गजले अच्छी लगी। मै जैसा तब सामान्य था वैसा ही आज भी हूँ।
भारतेन्दु मिश्र : कुछ लोग कह रहे है कि कविता का अंत हो गया है तो ऎसे समय मे समकालीन कविता के बारे मे आपकी क्या राय है?आज नवलेखन की क्या चुनौतियाँ है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :देखिये, मेरी राय मिली जुली है।कुछ लोग बहुत अच्छा भी लिख रहे है,कुछ सामान्य भी लिख रहे है। ऎसा हर युग मे होता रहा है। अब कहने वालो की क्या बात है कोई कुछ भी कह सकता है-कविता का ही क्यो साहित्य का अंत हो गया है,या फिर मनुष्य का अंत हो गया है। बाकी लेखन का अंत तो हो ही नही सकता,अब किसी के दिमाग मे विचार आयेगे तो वह अपने को कैसे रोक लेगा। यह तो स्वाभाविक प्रक्रिया है,इसे बन्द नही किया जा सकता। चीजे जितनी जादा उलझती जा रही है उतना ही अनुभवो का विस्तार होगा तो रचनाकार लिखेगा ही। नये समय की नई चुनौतियो का सामना भी नया कवि कर रहा है।
भारतेन्दु मिश्र : अभी कुछ दिन हुए डाँ नामवर सिंह ने किसी कवि की एस.एम.एस. की हुई कविताओ का संकलन लोकार्पित किया है,इण्टरनेट पर भी कविताएँ आ रही है। हिन्दी विकीपीडिया मे बहुत से कवियो की कविताएँ दी हुई है आप इस सब को हिन्दी साहित्य की प्रगति का नया दौर मानते है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : देखिये विकास तो हो रहा है लेकिन अभी बहुत सीमित लोगो तक इण्टरनेट की पहुँच है। जैसे मै इस सबको के बारे मे अधिक नही जानता हूँ मुझे लगता है कि अधिकाश लोग अभी इण्टरनेट से जुडे नही है।हाँ, यह हो सकता है कि इसमे कुछ साहित्य सुरक्षित हो जाय। सुदूर बैठा हुआ सुविधा सम्पन्न पाठक भी इससे जुड सकता है।हो सकता है कि कुछ और अच्छे परिणाम आये,परंतु मुद्रित पुस्तक का कोई विकल्प नही हो सकता,उसका महत्व बराबर बना रहेगा।
भारतेन्दु मिश्र : तो नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के बाद आपने लेखन की कोई नई योजना बनाई है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :देखिये, मै बहुत सामान्य आदमी हूँ,कोई बडी एषणा मेरी नही है,कोई महत्वाकाक्षा भी नही है। दो तीन उपन्यासो की योजना जरूर मेरे मन मे है। पिछले बीस वर्षो से कई प्लाँट मेरे मन मे है,उसकी रूपरेखा मेरे दिमाग मे है अब समय मिलेगा तो मै उन पर ध्यान दूँगा। कुछ मेरी कहानियाँ ऎसी है जिनमे उपन्यास की संभावनाएँ है उस पर भी काम करना चाहता हूँ।सबसे पहले मै जिस उपन्यास पर काम करना चाहता हूँ उसका शीर्षक है अजगर पंछी, यह प्लाँट आफिस के माहौल पर है। अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम से इसका शीर्षक लिया है। अब देखिये कर पाता हूँ कि नही,मन मे इच्छा तो है।
भारतेन्दु मिश्र : आपका अप्रकाशित साहित्य भी है,एक काव्य नाटक भी है ।उसके प्रकाशन की क्या योजना है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा : मेरा काव्य नाटक समयमंच अप्रकाशित है और मेरा खंडकाव्य है गवाक्ष वह भी अप्रकाशित है। प्रकाशन की दिशा मे भी विचार कर रहा हूँ। समयमंच की पृष्ठभूमि इमरजेंसी के दौर की है उस समय जयप्रकाश नारायण जी ने इन्दिरा जी को एक पत्र लिखा था। उसमे एक पंक्ति थी –कि आपने मुझे क्रांति के नायक से खलनायक बना दिया। -इसी सूत्र वाक्य को लेकर मैने वह काव्यनाटक लिखा था। उस नाटक मे राजनीति और कूटनीति मनुष्य और उसकी परिस्थितियो पर कैसे हावी होती है ,यही मूल विषय है। नाटक का सूत्रधार नायक को विक्षिप्त बना देखता है,तो ऎसे ही वह नाटक बन गया। बाकी रंगकर्मी देखेंगे।
भारतेन्दु मिश्र : आपका परिवार संयुक्त परिवार है? आज के समय मे महानगरो मे यह चकित करने वाला है,संयुक्त परिवार के कुछ लाभ भी है कुछ परेशानियाँ भी होती है आप कैसा अनुभव करते है?
डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा :देखिये, मै संयुक्त परिवार का बहुत अधिक पक्षधर हूँ, आजकल जो न्यूकिलियर फैमिलीज़ है उनसे मै बहुत सहमत नही हूँ। संयुक्त परिवार एक वटवृक्ष के समान है लेकिन उसमे यदि हम थोडा सा विवेक से काम ले तो बहुत अच्छा रहता है। उसमे यह रहता है कि हम अपने परिजनो की छोटी-छोटी बातो को यदि नजरन्दाज़ करते चले तो बहुत कठिनाई नही होती। संयुक्त परिवार मे यदि यह मान कर चले कि मै किसी के लिए क्या कर सकता हूँ,बजाय इसके कि कौन मेरे लिए क्या करदे तो अच्छे से निभाया जा सकता है। मुख्य उद्देश्य यह होना चाहिए कि हम किसी के लिए क्या कर सकते है। इससे संयुक्त परिवार बहुत सुदृढ बना रह सकता है।

1 टिप्पणी:

  1. डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर आपने उनसे बड़ी सार्थक बातें पूछी हैं और शर्माजी ने भी बड़ी बेबाकी से सभी उत्तर दिये हैं। यह एक महत्वपूर्ण बातचीत है जिसमें कविता के अनेक पक्षों पर तो प्रकाश पड़ा ही है, इस बात का भी खुलासा हुआ है कि शर्माजी एक लापरवाह जीने वाले अनुशासित साहित्यकार हैं। लापरवाह इस अर्थ में कि उन्होंने अपनी ही कई उल्लेखनीय रचनाओं को सहेजकर रखने की आवश्यकता महसूस नहीं की और अनुशासित इस अर्थ में कि महानगर में रहते हुए तथा साठ के नजदीक पहुँचते हुए आज भी वे संयुक्त परिवार के पक्षधर हैं। इस बातचीत को पाठकों तक पहुँचाने के लिए आप दोनों को साधुवाद।

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