शनिवार, फ़रवरी 11, 2017


जन्मशती (1917-1964 ) पर स्मरण--
मुक्तिबोध का काव्य मर्म



                                   मुक्तिबोध समकालीन हिन्दी कविता के 

युगप्रवर्तक रचनाकार माने जाते है|वे ‘तारसप्तक’ के पहले कवि है|अपने जीवन और 

परिवेश के अँधेरे में भटकते हुए उन्हें अभाव के प्रभाव के साथ व्यापक जीवनानुभव 

की दिशा सहज ही मिल गयी थी| 

गजानन माधव मुक्तिबोध जी का जन्म 13 नवंबर 1917 को श्योपुर (शिवपुरी) जिला मुरैना, ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में हुआ था। आपके पिता माधवराव और माता का नाम पार्वती बाई था। पिता पुलिस की नौकरी में थे |ईमानदारी के कारण पिता जी के तबादले बार बार कई शहरो में होते रहे| मुक्तिबोध को भी परिवार के साथ शहर –गाँव सब कही भटकना पडा| बाद में पदोन्नत  हो कर पिता जी उज्जैन में इन्स्पेक्टर पद से रिटायर हुए। रात में गश्त लगाने वाले पुलिस वालो के साथ उन्हें घूमना अच्छा लगता था| रात के अँधेरे में होने वाले जुर्म और उनकी रोकथाम के लिए पुलिस विभाग द्वारा रात की गश्त के लिए सिपाहियों की तैनाती की जाती है| मुक्तिबोध को अपनी कविता का पोस्टर जीवन की इन बेसबब भटकनो से मिला|मुक्तिबोध की पढाई में बाधा बार बार आती रही| पूजापाठ के प्रति आस्तिक विचारवाले , निर्भीक, न्यायनिष्ठ और रिश्वत-विरोधी होने के कारण जब पिता जी रिटायर हुए तब भी वे खाली हाथ थे।ऐसे ईमानदार सात्विक परिवेश में कवि का बचपन बीता था|उन दिनों मध्यप्रदेश के गाँवों में किस तरह का पिछडापन रहा होगा उसकी कल्पना ही की जा सकती है|मुक्तिबोध ने इस परिवेश में पसरे जीवन और लोगो के जीवन संघर्ष को बहुत निकट से देखा और उनके जीवन की विसंगतियों को देखकर  उनके दुखो  के मर्म को समझने की चेष्टा की है| जब अमानवीयता के बिम्ब असहनीय होने लगते है तो मुक्तिबोध की कविता शोषितों के हक में पोस्टर बन जाती है|किताबो के अलावा मुक्तिबोध जीवन के भी गहराई से पढ़ते हैं|मुक्तिबोध के लिए भटकन और अभाव से लड़ने के लिए कविता पोस्टर का काम करती है|वह भी खून के रंग से लिखा गया पोस्टर –
गलियों के अलमस्त
फ़क़ीरों के लहरदार
गीतों से फहराओ
चिपकाओ पोस्टर
कहता है कारीगर ।
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मानो या मानो मत
आज तो चन्द्र है, सविता है,
पोस्टर ही कविता है !!
वेदना के रक्त से लिखे गये
लाल-लाल घनघोर
धधकते पोस्टर
गलियों के कानों में बोलते हैं
धड़कती छाती की प्यार-भरी गरमी में
भाफ-बने आँसू के ख़ूँख़ार अक्षर !!

मुक्तिबोध का अपने परिवेश में रहने वाले इंसानों से इतना गहरा प्रेम है कि वही प्रेम की संवेदना मानो धड़कती छाती की गर्मी से निकलने वाली भाप के आसवन से कविता आंसू बन जाती है|कवि की करुणा का विरेचन करने वाला वह आंसू ही उनकी कविता के लिए खूखार अक्षर बन जाता है|ऐसे ही अक्षरों से लिखी गयी उनकी कविता शोषण के विरुद्ध बनाया गया पोस्टर है|इस मर्म संवेदना का  पोस्टर जिसे कवि चौराहों पर आसपास की दीवारों पर चिपका देना चाहता है| मुक्तिबोध कविता को फकीरों के गीत से जोड़ते है|पेंटर की पेंटिंग से जोड़ते है|उनके लिए कविता केवल कुछ ख़ास विचारधारा वाले चिंतको की बयानबाजी भर नहीं है|वो सभी ओर से उठने वाले संघर्षो को एक साथ चौराहे तक लाना चाहते है| दुखो से बिलबिलाती और अपने अज्ञान के कारण मारी जाती हुई निरीह जनता के बीच किसी गाँव गली का चौराहा ही उनका मंच है|असल में मुक्तिबोध अपनी लंबी कविताओं को कविता के रूप में न लिख कर उन्हें रंगमंच के शिल्प में गढ़ते है| उनकी फैंटेसी चाहे ‘अंधेरेमे’ हो या ‘ब्रह्मराक्षस’ सभी का अर्थ मंचित किये जाने से ही खुलता है|हिन्दी कविता में यह नई पहल थी|ये समय ही आख्यान धर्मी लम्बी कविताओं का लगता है-
प्रसाद की ‘प्रलय की छाया’,निराला की-‘राम की शक्तिपूजा’ अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’ और इसी आख्यान परंपरा में मुक्तिबोध की कविताएं देखी परखी जा सकती है| परन्तु गंभीरता से विचार करने पर हम देखते है कि मुक्तिबोध की लम्बी कवितायेँ पूर्व के कवियों की आख्यान धर्मी कविताओं की परंपरा से कुछ भिन्न नई लीक बनाती है| ये स्वप्न-आख्यान के रूप में हमारे अवचेतन में उतरती है और हमे पूरी तरह झिझोड कर जागृत कर जाती है|इन कविताओं में जीवन की धड़कती हुई लय विद्यमान है| भले ही प्रकट रूप में कोई छंद हो या नहो| इन कविताओं की संवाद धर्मिता और व्यंजना की धार बारंबार समाज के तथाकथित प्रबुद्धो के मस्तिष्क पर चोट करती हुई दिखाई देती है|  ये अत्यंत उलझे हुए आख्यान वाली कविताएं होने के साथ ही आक्रोश से लबालब प्रतिहिंसा को उकसाने वाली कविताएं भी है| पराधीनता के प्रति विद्रोह तो एक आवरण है|गुलामी के जो कई आयाम है मुक्तिबोध उन सबको समझते है| सबको समझाने के लिए मुक्तिबोध सभी कलाकारों और कला माध्यमो को सन्देश भी देते है-पेंटर ,कवि और संवाद की भाषा तो मानो उन्हें शूद्रक अथवा शेक्सपीयर ही बना देती है| मुक्तिबोध सकारात्मक ज्ञानात्मक संवेदना पर बल देते है|आम आदमी का जीवन जटिल है उसे समझने के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं और लेखको को उनके निकट जाना होता है,समाज और सामाजिको से जुड़े बिना उनके जीवन संघर्ष अथवा जीवन सौन्दर्य को  नहीं पहचाना जा सकता|
    मुक्तिबोध की प्रारंभिक शिक्षा उज्जैन में हुई। 1938 में बी० ए० पास करने के पश्चात आप उज्जैन के मॉर्डन स्कूल में अध्यापक हो गए । आपने अनेक स्थानों पर अध्यापन कार्य किया और अर्थ-संकट भी भोगा। 1954 में एम० ए० करने पर राजनाँद गांव के दिग्विजय कॉलेज में प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए। दस वर्ष बाद ही अर्थात 11 सितंबर 1964 को उनका निधन हुआ | कुल 47 वर्ष का जीवन और हिन्दी साहित्य की दिशा में मील का पत्थर बन कर अल्पायु में ही चल बसे| विद्वानों का मत है कि-1962 में जब उनकी अन्तिम रचना, 'भारत इतिहास और संस्कृति' प्रकाशित हुई तभी तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार उनको लेकर चौकन्नी हो गई थी|कोई भी सत्ता अपने सामने विद्रोही कवि को कैसे सह सकती थी| मुक्तिबोध को सत्ता की उपेक्षा के कारण  आतंरिक चोट पहुँचाई गयी इस कारण उनके हृदय पर इस असहनीय उपेक्षा का गहरा प्रभाव पडा और  अकस्मात्  17 फरवरी  1964 को उन्हें पक्षाघात हुआ  । भोपाल के हमीदिया अस्पताल में उनका उपचार भी  हुआ लेकिन जब दशा और अधिक बिगड़ गई तो मुक्तिबोध को दिल्ली स्थित  ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में भरती करवाया गया। लगभग आठ महीने मृत्यु से जूझने के पश्चात 11 सितम्बर, 1964 को मूर्छा  में ही आपका देहांत हुआ| इस अल्प आयु में ही वे हिन्दी साहित्य को जितना कुछ दे गए वह अत्यंत महत्वपूर्ण है| हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध निरे कवि नहीं थे वे कहानीकार भी थे और समीक्षक भी।प्रसाद की कामायनी पर उनकी किताब इस बात का प्रमाण है कि वे अपने समय के श्रेष्ठ आलोचक भी है| वे नवता  के मूल्यों को अपनी दृष्टि से विवेचित करते हैं| वे  प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु निर्मित करते है|नए युग के लिए नए काव्य सौन्दर्य के मानक भी गढ़ते है।
 सन 1939 में आपने शांता जी से प्रेम विवाह किया था। कहा जाता है कि पत्नी के साथ उनकी वैचारिक अनुकूलता नहीं हो पाई। पत्नी को मुक्तिबोध के कवि-व्यक्तित्व की अपेक्षा सम्पन्नता और सुविधापूर्ण जीवन में अधिक रुचि थी।   वैश्विक स्तर पर देखे तो यह समय क्रान्ति – शोषण और दमन का रहा है| 1942 के आस-पास वे वामपंथी विचारधारा की ओर झुके तथा शुजालपुर में रहते हुए उनकी वामपंथी चेतना और मजबूत हुई।इस अल्पायु में उनकी दुर्दमनीय रचनाधर्मिता अचंभित करती है| उनकी रचनाओं में-- कविता संग्रह : चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल तथा तारसप्तक में रचनाएं प्रकाशित|कहानी संग्रह : काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी।उपन्यास: विपात्र,आलोचना : कामायनी : एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ तथा  आत्माख्यान: एक साहित्यिक की डायरी के रूप में उपलब्ध है| हालांकि अब सात खंडो में मुक्तिबोध रचनावली का भी प्रकाशन हो चुका है | सर्वप्रथम ‘तारसप्तक’ में उनकी उपस्थिति सबको आकर्षित करती है| मुक्तिबोध कवि की पीड़ा को कुरेदते हुए जीवन का यथार्थ लिखते है| तारसप्तक में ‘मृत्यु और कवि’ तथा ‘नाश देवता ’ जैसी कवितायेँ जीवन की व्यापक करुणा का स्वर लेकर उपस्थित होती है| करुणा स्थायी भाव है,वह दुःख के भाव का नैसर्गिक आयाम भी है| मुक्तिबोध की ये दोनों कविताएं अपने शीर्षकों से ही नहीं वरन अपनी भाषा , लय और व्यंजना से हमें बांधती है| ‘मृत्यु और कवि’ का स्वर देखने योग्य है|इस कविता के आरंभिक दो अनुच्छेद इस प्रकार है -      
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर
व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर
है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती,
जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर
बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला,
वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि का मन गीला
"
ये सब क्षणिक ,क्षणिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर" ।

ऐसा मत कह मेरे कवि, इस क्षण संवेदन से हो आतुर
जीवन चिंतन में निर्णय पर अकस्मात मत आ, ओ निर्मल !
इस वीभत्स प्रसंग में रहो तुम अत्यंत स्वतंत्र निराकुल
भ्रष्ट ना होने दो युग-युग की सतत साधना महाआराधना
इस क्षण-भर के दुख-भार से, रहो अविचिलित, रहो अचंचल
अंतरदीपक के प्रकाश में विनत-प्रणत आत्मस्थ  रहो तुम
जीवन के इस गहन अटल के लिये मृत्यु का अर्थ कहो तुम ।
हमारी परंपरा में आदि कवि वाल्मीकि ने शोक को ही श्लोक के रूप में विक्सित किया था|काव्यशास्त्रियो द्वारा कहा जाता है-‘शोक:श्लोकत्वमागत:’ अर्थात शोक से श्लोक निकल आया|बहेलिये ने क्रौंच पक्षी का जब वध किया और क्रौंची विलाप करने लगी तो उसकी करुण पीड़ा और शोक को कवि ने श्लोक के रूप में व्यक्त किया| जैसा कि संस्कृत में एक अन्य सूक्ति है- ‘जीवन्नरो भद्र शतानि पश्यति’ अर्थात मनुष्य का स्वभाव है कि जीवन के लिए जीवित रहते मनुष्य अपने कल्याण के लिए  सैकड़ो मार्ग खोजता है| किन्तु मृत्यु के बाद विवश पड़े हुए मनुष्य में कवि को मानो अपनी मृत्यु नजर आने लगती है|मुक्तिबोध कवि से मृत्यु का अर्थ कहने के लिए प्रेरित करते है| ठीक उसी प्रकार जैसे गौतम बुद्ध कहते है-संसार के चार आर्य सत्य हैं-1.दुःख है|2.दुखका कारण है|3.दुख के कारण का निवारण है|4.दुख के निवारण का मार्ग है| मुक्तिबोध इसी कविता के माद्ध्यम से अपने नाम को सार्थक करते हुए अपने समय की कवि बिरादरी को सचेत करते है| ज़रा, व्याधि मृत्यु के बोध से मुक्ति के बाद ही कोई कवि सही अर्थ में कवि हो सकता है| ये चेतना हमारी परंपरा से जीवन में व्यापी हुई है|ऐसी कविता लिखते समय जाहिर है कि मुक्तिबोध के सामने पराधीन भारत में  मध्यप्रदेश के पिछड़े हुए शहरों और गाँवों में भुखमरी,गरीबी, बीमारी और अकाल मृत्यु के कारुणिक दृश्य सामने उपस्थित रहे होंगे| किसी कवि को अपना काव्य प्रयोजन याद रहे तो यह बहुत बड़ी बात है| ‘तारसप्तक’ में ही संकलित एक और कविता है जिसका शीर्षक है-‘नाश देवता’ इसका स्वर तो और भी विचलित करने वाला है-

घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा,
तेरी प्रत्यंचा का कंपन सूनेपन का भार हरेगा
हिमवत, जड़, निःस्पंद हृदय के अंधकार में जीवन-भय है
तेरे तीक्ष्ण शरों की नोकों पर जीवन-संचार करेगा ।

तेरे क्रुद्ध वचन बाणों की गति से अंतर में उतरेंगे,
तेरे क्षुब्ध हृदय के शोले उर की पीड़ा में ठहरेंगे
कोपित  तेरा अधर-संस्फुरण उर में होगा जीवन-वेदन
रुष्ट दृगों की चमक बनेगी आत्म-ज्योति की किरण सचेतन ।

सभी उरों के अंधकार में एक तड़ित वेदना उठेगी,
तभी सृजन की बीज-वृद्धि हित जड़ावरण की मही फटेगी
शत-शत बाणों से घायल हो बढ़ा चलेगा जीवन-अंकुर
दंशन की चेतन किरणों के द्वारा काली अमा हटेगी ।

हे रहस्यमय, ध्वंस-महाप्रभु, जो जीवन के तेज सनातन,
तेरे अग्निकणों से जीवन, तीक्ष्ण बाण से नूतन सर्जन
हम घुटने पर, नाश-देवता ! बैठ तुझे करते हैं वंदन
मेरे सर पर एक पैर रख नाप तीन जग तू असीम बन ।
ये दोनों कविताएं वर्ष 1942 से पहले रची गयी होंगी|स्वतंत्रता संग्राम की गमक पूरे समाज में विद्यमान थी| मुक्तिबोध नाश के देवता की अभ्यर्थना करते है| महाकाल की अभ्यर्थना में प्रसाद जी ने भी कामायनी में शिव को समानांतर
रूप से नाश और सृजन का देवता माना है| मुक्तिबोध इस कविता में क्रोध और आक्रोश के लिए महाकाल को मानो सज्जित होने का आह्वान करते हैं| धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर शर संधान हेतु सज्जित होने की प्रार्थना करने वाला कवि ही कदाचित मुक्तिबोध हो सकता है| कवि का मानना है कि दंशन से चेतना की किरणे फूटेंगी और अज्ञान का अन्धकार नष्ट होगा| इसीलिए मुक्तिबोध महाकाल से कहते है कि हे ध्वंस के महाप्रभु अपने तीक्ष्ण बाणों के अग्निकणों से पुरातन को हटाओ और नूतनता का सृजन करो|अंगरेजी राज की काली अमावस्या को तुम ही दूर कर सकते हो| मुक्तिबोध की शिवसाधना को भी हमें समझना होगा कि वे अपने किसी हित के लिए प्रार्थना करने वाले निरे विह्वल भक्त नहीं है| बल्कि वे हमारे समय के क्रान्तदर्शी कवि है| उनका आक्रोश और आगे बढ़ता जाता है|’प्रश्नचिन्ह बौखला उठे’ शीर्षक कविता का अंतिम अंश देखिये-

भूखे चूल्हे के भोले अंगारों में रम,
जनपथ पर मरे शहीदों के
अन्तिम शब्दों में बिलम-बिलम,
लेखक की दुर्दम कलम चली ।
मुक्तिबोध की कविताओ में जहा छंद टूटते दिखाई देते है वहा उनके जीवन के व्यापक संघर्ष को बल मिलता है|जब कविता की लय खंडित होती है,जीवन की लय भी टूटती है| टूटती हुई जीवन की लय को नया शिल्प देने का कार्य हिन्दी में मुक्तिबोध ही करते है| उनका चिंतन  इसीलिए बरगद की जड़ की तरह पाताल की गहराई से लेकर आकाश तक फैली हुई फुनगियो में दिखाई देता  है|विरूप यथार्थ का सौन्दर्यशास्त्र गढ़ने में मुक्तिबोध को महारत हासिल है|जैसे  नागार्जुन के यहाँ चूल्हा चक्की की उदासी वाला अकाल का चित्र  झलकता है| मुक्तिबोध भी इस प्रकार के त्रासद प्रसंग के सौंदर्यशास्त्र से जुड़ चुके थे| मुक्तिबोध के पास दुर्दम कलम है| ऐसी कलम जब चलती है तभी शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि दी जाती है| ‘विचार’ शीर्षक कविता में मुक्तिबोध कहते है-

विचार आते हैं
लिखते समय नहीं
बोझ ढोते वक़्त पीठ पर
सिर पर उठाते समय भार
परिश्रम करते समय
चांद उगता है व
पानी में झलमलाने लगता है
हृदय के पानी में
अर्थात विचारों का संबंध मनुष्य की जीवन शैली से है|सकारात्मक ज्ञानात्मक संवेदना ही लेखन की मूल संवेदना है|इस मूल्य को जिन लोगो ने समझा वे ही लोग मुक्तिबोध की कविता को समझ सके हैं|मुक्तिबोध के यहाँ चाँद के अनेक रूपाकार है विविध सौन्दर्य बिम्बों के साथ विविध प्रतीकों के रूप में वह प्रकट होता है|एक बात और समझने की है कि मुक्तिबोध निरे मार्क्सवादी विचारधारा के कवि नहीं है|वे आक्रोश के कवि है|वे संघर्ष के कवि हैं|पाखण्ड के विरोध में खड़े होने और उससे आगे बढ़कर लड़ने की प्रेरणा देने वाले कवि है,किन्तु उन्हें एक ख़ास विचारधारा में सीमित करके देखना उचित नहीं है|चाँद का मुंह टेढा है की भूमिका में श्रीकांत वर्मा ने लिखा था-
“हमारे सामाजिक जीवन में कविता को क्या स्थान हासिल है, इसका इससे अच्छा परिचय और क्या मिल सकता है ! वास्तव में कविता मरणासन्न है या समाज, इसका फ़ैसला भी कवि और समाज दोनों ही अपने-अपने ढंग से करेंगे। मुक्तिबोध तो शायद यह नहीं मानते मगर मैं यह ज़रूर मानता हूँ कि अपनी मृत्यु के लिए कवि भले ही ज़िम्मेदार हो, समाज की मृत्यु के लिए क़तई नहीं।किसी और कवि की कविताएँ उसका इतिहास न हों, मुक्तिबोध की कविताएँ अवश्य उनका इतिहास हैं। जो इन कविताओं को समझेंगे उन्हें मुक्तिबोध को किसी और रूप में समझने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी”
मुक्तिबोध को समझने के लिए उनकी कविताओं में घुसकर देखना होगा|खासकर लम्बी कविताओं में उनके जीवनानुभव का प्रतीकात्मक विस्तार है| जिंदगी के एक-एक स्नायु के तनाव को मुक्तिबोध खासकर अपनी लम्बी कविताओं –अँधेरे में,ब्रह्मराक्षस ,चांद का मुंह टेढा है,आदि में गहरी निष्ठा से व्यक्त करते है|वे उन कविताओं के लिए विख्यात भी हुए|उनकी इन कविताओं में उनके समय के यथार्थ की जटिलता को समझा जा सकता है| आज भी न वह शोषण ख़त्म हुआ है और न वह जन सामान्य के जीवन की जटिलता ही समाप्त हुई है|मुक्तिबोध इसी लिए समाज में रह कर भी स्वयं को समाज से भिन्न स्थान पर अनुभव करते हैं---
‘मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ 
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है 
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।‘
जब मुक्तिबोध ऐसा कहते है तो उनकी महाप्राणता का अंदाजा लगाया जा सकता है| जैसे गीता में कहा गया है-‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ’ कुछ उसी व्यंजना में मुक्तिबोध को समझना चाहिए|वो सबके साथ सामान हो कर भी सबसे अलग हैं|