रविवार, अक्तूबर 30, 2011

निराला जयंती पर पुनर्पाठ हेतु



गीत निराला के

भारतेन्दु मिश्र

युग बीत गया,निराला की कविता नही रीती। वो आज भी प्रासंगिक हैं उनके गीत कालजयी हैं। छन्दोबद्ध कवियों को निराला से बहुत कुछ सीखना है। सन-1923 में निराला का पहला कविता संग्रह –अनामिका- प्रकाशित हुआ। अनामिका में ही अधिवास शीर्षक एक कविता है जिसमें निराला कहते हैं-
मैने मै शैली अपनायी
देखा दुखी एक निज भाई
दुख की छाया पडी हृदय में झट उमड वेदना आयी।
यह कविता सन 1923 या उससे कुछ पहले की ही होनी चाहिए,बहरहाल निराला की कविता का प्रयोजन उनकी इन्ही पंक्तियों से साफ झलकता है कि निराला दुखदग्ध मनुष्य की वेदना के कवि हैं। असल में निराला करुणा के कवि हैं। सरोज स्मृति हिन्दी का पहला शोक गीत है। घनघोर शोक की दशा में भी निराला छन्द नही तोडते। वे दुख को गरल समझकर पी जाने वाले सिद्ध कवि हैं। वे असहाय दीन दुखियों के दुखों के गीतकार हैं। यह वह समय था जब अधिकांश रचनाकार स्वतंत्रता की लडाई के गीत लिख रहे थे। हालाँकि कुछ कवि धर्म और दर्शन की पहेलियाँ सुलझाने में भी लगे थे।निराला की इसी जमीन पर पढीस और बंशीधर शुक्ल जैसे किसान चेतना के कवि भी इसी समय में हुए। यह वह समय था जब भारतीय जीवन मे बहुत तेजी से बदलाव हो रहे थे,लेकिन निराला ने छन्द नही छोडा बल्कि वो तो नए से नए छन्दविधान को स्वर देने मे लगे थे। अत: निराला छन्द साधना के कवि हैं। जब वो कहते हैं -मैने मैं शैली अपनायी- तो इसका अर्थ यही है कि वो अपने समय के छायावादी कवियों से हटकर अपना मार्ग बना रहे थे। यहीं से उनकी मौलिकता का अन्दाज लगाया जा सकता है। निराला के इसी वाक्य को लेकर कुछ आलोचको ने उन्हे छन्दमुक्त कविता का प्रवर्तक और स्वच्छन्दतावादी कवि सिद्ध करने की कोशिश की है,जबकि यह पूरा सच नही था। यदि ऐसा होता तो निराला छन्दहीन कविताएँ ही रचते रहते। निराला तो संवाद धर्मी गीत लिख रहे थे।
-बाँधों न नाव इस ठाँव बन्धु /पूँछेगा सारा गाँव बन्धु। जैसे अनेक गीत निराला ने रचे हैं।किसान चेतना और ग्राम्य जीवन के बहुत से चित्र निराला के गीतों की शक्ति बनकर उभरते हैं ।
निराला की रचनावली में जो कविताएँ संकलित हैं उन्हे देखकर यह साफ हो जाता है कि वे अंततक छन्दोबद्ध कविताएँ ही लिखते रहे,बल्कि निराला नए छन्दो का सृजन भी करते रहे। कविता की अखण्ड लय ही निराला की साधना का मूल है। वे उन विरल कवियो में से हैं जिन्हे संगीत का भी पूरा ज्ञान है। वे राग रागनियों में निबद्ध गीतो की रचना भी करते हैं। उनके अनेक गीतों का सुर ताल सधा हुआ है। वे पक्के राग मे भी गाये जाते हैं। वे सहज रूप मे ही नवगीत की परिभाषा देते हुए चलते हैं-
नवगति नव लय ताल छन्द नव
नवल कंठ नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृन्द को
नव पर नव स्वर दे।..वरदे वीणावादिनि वर दे।
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने अपनी पुस्तक –अनकहा निराला- मे इस बात पर विशेष बल दिया है और निराला के गीतों मे प्रयुक्त रागों की विस्तार से चर्चा करते हुए वे कहते हैं-‘वैसे तो निराला जी ने चित्र और संगीत हीन एक पंक्ति भी नही लिखी ,किंतु कभी कभी उनमें कुछ ऐसा लोकोत्तर अनोखापन आ गया है कि देखते ही बनता है। पृ.194(अनकहा निराला) निराला महाप्राण हैं क्योकि उनके गीतो में दीन जन के प्राण बजते हुए सुने जा सकते हैं। निर्धन लाचार लोगों की पीडा का स्वर उनके गीतो मे सुना जा सकता है। वे छायावाद के निरे सुकुमार कवि नही हैं,वे रहस्यवाद के चमत्कारी कवि भी नही हैं।वे तो प्रगतिशील चेतना के गीतकार हैं।छायावादोत्तर -नवगीत,जनगीत आदि अनेक प्रगतिशील आन्दोलनो को उर्वर भूमि निराला के गीतों से ही मिलती है। संवेदना का जो मार्मिक विस्तार निराला अपने गीतों द्वारा कर चुके हैं उससे बहुत कुछ आगे हमारे गीतकार नही बढ पाये हैं।वैचारिक स्तर पर निराला समाज के अतिदीन दुखी दलित और अंतिम पंक्ति मे खडे व्यक्ति के दुखों की समीक्षा ही नही करते बल्कि सामंतों को टोकते हुए चलते हैं।सन 1929 के आसपास लिखे गये गीत का अंश देखिए-
छोड दो जीवन यों न मलो
ऐठ अकड उसके पथ से तुम रथ पर यों न चलो।
यह पूरा गीत उस समय के सामंतवादी ठाठ के खिलाफ आम आदमी के साथ खडे हुए निराला की गवाही देता है।यह है निराला की काव्य चेतना सामंतवादी ऐठ अकड के खिलाफ दलित जन का समर्थन करती है। निराला यहाँ सच्चे समाजवादी दिखाई देते हैं।दीन दुखी जन के हित में निराला किसी हठयोगी की तरह डटे हुए दिखाई देते हैं तो कहीं ईश्वर से प्रार्थना करते हुए तुलसी जैसे संत कवियों के समीप खडे मिलते हैं- दलित जन पर करो करुणा दीनता पर उतर आये प्रभु तुम्हारी शक्ति अरुणा। ध्यान देने की बात यह है कि निराला का भक्तिभाव स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करने वाला नही है। वे तो अपने सब संचित फल लुटाने वाले हैं।भिक्षुक शीर्षक कविता भी उनकी प्रारम्भिक कविताओ में है। भिक्षुक की लाचारी का इतना सजीव चित्रण सम्भवत:हिन्दी कविता में निराला से पहले अन्यत्र नही मिलता। कलेजे के दो टुकडे करने वाला मार्मिक डृश्य अपना कलेजा चीर कर निराला देखते हैं और दिखाते हैं। करुणा ही चीत्कार करती है निराला की कविता में। इस पूरी कविता को पढने के बाद उनके समय की भुखमरी से उत्पन्न लाचारी का स्पष्ट आकलन किया जा सकता है। निराला का भिक्षुक आजकल जैसा पेशेवर भिखारी नही है-
वह आता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता
पथ पर आता।
भीख माँगने वाले आज भी कम नही हुए हैं बल्कि पेशेवर हो गये हैं। विचारधाराएँ और सरकारें दमतोड चुकी हैं। निराला के भिक्षुक के मन में पश्चात्ताप है। यह बोध ही उसे पेशेवर भिखारियो से अलग करता है। शायद इसीलिए निराला की करुणा फूटकर बह निकली है। निराला कल्पना की कोई गुलाबी उडान के कवि नही हैं। वे असल मे जनकवि भी हैं,महाप्राणत्व की प्रतिष्ठा भी उन्ही में है। यह कविता निराला के श्रेष्ठ प्रगीतो में से एक है। निराला अपने समय में छायावादी रोमानियत को फलाँग कर आगे बढे हैं। अपने समय मे वैचारिक स्तर पर आगे बढना ही तो प्रगतिशीलता है। किसी दल की सदस्यता लेकर किसी खेमे मे शामिल होकर निराला प्रगतिशील नही बने, बल्कि वे तो प्रगति शीलता के अग्रदूत हैं। इसी क्रम में पत्थर तोडती महिला बिम्ब देखें-
वह तोडती पत्थर
देखते देखा उसे मैने इलाहाबाद के पथ पर।
हिन्दी में इस तरह की छान्दसिक कविताएँ निराला से पहले नही लिखी गयीं जिनमें मज्दूर महिला का श्रम सौन्दर्य अंकित हो। ऐसे प्रगीत लिखना तो बहुत बडी साधना की बात है। उनके गीतो मे बिम्बो और प्रतीको के भटकाऊ जंगल नही हैं। उनकी कविताओ में अंत:सलिला की तरह लय धडकती है। वे सीधी सादी भाषा में सुकोमल और भीषण संवेदना के मर्मस्पर्शी कवि हैं। इसी लिए जानकीवल्लभ शास्त्री उन्हे विरोधो के सामंजस्य का कवि कहते हैं। सुकोमल संवेदना की सहज अभिव्यक्ति की दृष्टि से प्रणय और दाम्पत्य के विरल गीत अपने समय में निराला ने रचे हैं,गृहरति व्यंजना का स्वर देखें-
सुख का दिन डूबे डूब जाय
तुमसे न सहज मन ऊब जाय।
खुल जाय न गाँठ मिली मन की
लुट जाय न राशि उठी धन की
सारा जग रूठे रूठ जाय।
जहाँ सहज सौन्दर्य की उन्नत राशि है और जिस दाम्पत्य में एक मन के साथ दूसरे मन की गाँठ कसी है वह बना रहे बेशक काल्पनिक या अनिर्वचनीय सुख का दिन डूबता है तो डूब जाये। फिर तो निराला सारी दुनिया की भी बात नही मानते। दाम्पत्य बोध का ऐसा सुन्दर गीत अन्यत्र हिन्दी मैने नही पढा। इसी प्रकार एक और गीत में दाम्पत्य बोध का निराला का यही स्वर दृष्टव्य है निराला यहाँ भी अपने समकालीनों से अलग अपनी पहचान के साथ खडे हैं-
जैसे हम हैं वैसे ही रहें लिए हाथ एक दूसरे का अतिशय सुख के सागर में बहें।
एक और चित्र देखें-
पिय के हाथ जागाये जागी
ऐसी मैं सो गयी अभागी।
सहयोग साहचर्य और बहुत कुछ संत मत के निकट के सुन्दर चित्र निराला की कविता मे साफ तौर से दिखाई देते हैं जो अपनी सहजता और अनुभूति के कारण आकर्षक लगते हैं। निराला बहुआयामी कवि हैं उनकी कविता के अनेक स्तर हैं उनकी कविता के अनेक स्वर हैं। वो किसी एक विचार या विचारधारा में बँधकर नही चलते। जो नई राह बनाते हैं वो बनी बनायी राह पर कैसे चल सकते हैं। हम कह सकते हैं कि निराला वसुधैव कुटुम्बकं के कवि हैं। जानकीवल्लभ शास्त्री के अनुसार-“ निराला अद्वैतवादी भी हैं,द्वैतवादी भी हैं,भक्त भी हैं और ज्ञानी भी और क्रांतिकारी भी,लौह प्रहार तथा ललकार भी और और आत्म परमात्म मिलन की मधुर झंकार भी।वह वैयक्तिक अनुभूतियों के स्वर्ग में विचरने वाला मुक्त विहग भी हैऔर पतनोन्मुख रूढ प्रिय संस्कृति की विहग बालिका के लिए भयंकर बाज भी,उसमें लौकिक प्रेम की ललक भी है और आध्यात्मिक भूमि पर अनुभूति का आत्मपुलक भी,निराला विरोधों का स्वयं सामंजस्य और सामंजस्यो का विरोध हैं।“ (पृ.117 अनकहा निराला)
यहाँ साफ शब्दों मे कहें तो निराला सिद्ध रचनाकार साबित होते हैं। वो कुशल रचनाकार की तरह सब विचार धाराओ मे से जन्नोन्मुखी संवेदना का चुनाव करते हैं। कुछ कबीर की तरह ‘ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर’ वाली मुद्रा में। अपनी इन्ही विशेषताओ के कारण निराला आधुनिक युग के विशिष्त और युग प्रवर्तक कवि हैं।उनके गीतो को भी मार्क्स,फ्रायड,लोहिया या विवेकानन्द ,अम्बेडकर अथवा गान्धी में से किसी एक की विचारधारा से जोडकर नही देखा जा सकता। निराला इन सभी अपने समय के महापुरुषों के विचारों को सुन समझकर अपनी राह बनाते हैं सम्भवत: इसी लिए वो कहते हैं-“मैने मैं शैली अपनायी”। निराला को जब जो अपने रचनासमय के लिए उपयुक्त जान पडा उसे गृहण किया और जो अनुपयुक्त जान पडा उसे छोड दिया।
निरला की रचनावली और विशेषकर आराधना में प्रकाशित गीतों को पढने से लगता है निराला भक्त कवि हैं।निराला के गीतों मे सूर तुलसी मीरा आदि भक्त कवियों की सी संवेदना की तडप विद्यमान है।यद्यपि वो धार्मिक कर्मकाण्ड वाली आस्था के कवि नही हैं जहाँ एक ओर कहीं वो अपने गीतों में नाम जपने का संकेत देते हैं तो वहीं दूसरी ताल ठोककर खडे होते हैं। राम की शक्ति पूजा में निराला की ओजस्विता और काव्य शक्ति की अनेक भंगिमाएँ स्पष्ट होती हैं तो दूसरी ओर उनके अनेक गीत सहजा भक्ति के मार्ग का अवलम्बन करते हैं। उदाहरणार्थ-

नाचो हे रुद्र ताल/आँचो जग ऋजु अराल।
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दुख के सुख पियो ज्वाला/शंकर के स्मर-शर की हाला।
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कामरूप हरो काम/जपूँ नाम राम-राम।
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वरदे वीणा वादिनि वर दे
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भारति जय विजय करे/कनक शस्य-कमल धरे।

यह अपने निजी सुख स्वार्थ पूर्ति या स्वर्ग सुख की कामना या ईस्वर से वरदान माँगने की निरी मानवीय मुद्रा नही है। यह निराला का युगधर्म भी है और व्यक्तिगत जीवन का सत्य भी। निराला के गीतो के पुनर्पाठ और नयी पाठचर्या की आवश्यकता है। उनकी छन्दसिक रचनाएँ ही उनके मनोभावो के भेद खोल सकती हैं। वे निरे
प्रयोगवादी भी नही हैं। निराला साफ करते हैं अपने भक्ति भाव को और कहते हैं-
नर जीवन के स्वार्थ सकल
बलि हों तेरे चरणो पर माँ
मेरे श्रम संचित सब फल।
आम तौर पर भक्ति और प्रगति दोनो पृथक मार्ग हैं किंतु निराला की भक्ति में उनकी प्रगतिशीलता साफ नजर आती है-जब वो कहते हैं नर जीवन के स्वार्थ सकल अर्थात मनुष्य जीवन के असंख्य छोटे बडे व्यक्तिगत स्वार्थ सबका बलिदान करता हूँ। इसके आगे कहते हैं–श्रम संचित सब फल-अर्थात अपने परिश्रम से अर्जित कर्मफल का ही अर्पण है। किसी अन्य पूर्वज या अनुज द्वारा अर्जित किसी फल या सम्पदा की बात नही कर रहे हैं निराला क्योकि मनुष्य का अपने श्रम द्वारा अर्जित फल पर ही नैतिक अधिकार होता है। इसके बदले में किसी फल की कामना तो है ही नही । हम इसे निराला की राष्ट्रीय चेतना के रूप में भी व्याख्यायित कर सकते हैं। तात्पर्य यह कि निराला के गीतो में कथ्य और संवेदना के जितने स्तर हैं कदाचित ही किसी दूसरे कवि के पास हों। अत: यह मान लेना कि केवल वैचारिकता के आग्रह में निराला ने छन्द तोड दिया,सही नही है। इस बात को स्वयं उनके गीत ही प्रमाणित करते हैं जहाँ वो नए शिल्प में नयी लय लेकर उपस्थित होते हैं। निराला अपनी सर्जना से तमाम छन्दविरोधियों को उत्तर देते है जैसे शक्ति पूजा में उन्होने राम को सन्देश दिलाया है-“आराधन का दृढ आराधन से दो उत्तर।“ वो सिद्धावस्था के जाग्रत कवि हैं। इसी लिए निराला नयी कविता ही नही नवगीत,जनगीत जैसे आन्दोलनो के प्रेरणा पुरुष के रूप में देखे जाते हैं। नवगीत जनगीत जैसे आन्दोलनो की जो पृष्ठभूमि सन 1950 के आसपास तैयार हो रही थी निराला उस दिशा में 1943 मे ही सार्थक प्रयोग कर चुके थे। बाद में अणिमा में संकलित उनका यह गीत देखिए-
चूँकि यहाँ दाना है इसीलिए दीन है ,दीवाना है। लोग हैं महफिल है नग्में हैं ,साज है,दिलदार है और दिल है शम्मा है,परवाना है। निराला अपने समाज के उपेक्षित जन के लिए अपनी कविता के औजार से लडते रहे। युगदृष्टा साहित्यकार हमेशा से ही अपने समय की समालोचना में उपेक्षा का शिकार रहा है। निराला भी शिकार हुए तब निराला ने अपने समय के आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सम्बोधित यह गीत लिखा-
जब से एफ.ए.फेल हुआ है/हमारे कालेज का बचुआ
नाक दबाकर सम्पुट साधै/महादेव जी को आराधै
भंग छानकर रोज रात को/ खाता माल पुआ
बाल्मीकि को बाबा मानै/नाना व्यासदेव को जानै
चाचा महिषासुर को,दुर्गा जी को सगी बुआ
हिन्दी का लिक्खाड बडा वह/जब देखो तब अडा पडा वह
छायावाद रहस्यवाद के/भावो का बटुआ
धीरे धीरे रगड-रगड कर/श्री गणेश से झगड झगड कर
नत्थाराम बन गया है अब /पहले का नथुआ।
जिस कवि मे आलोचक से आँख मिलाकर बात करने और ताल ठोककर दो हाथ करने की क्षमता होगी वही निराला के स्वाभिमान और उनके गीत की लय को पकड सकता है। बाद मे शुक्ल जी ने निराला जी को पढा भी और उनपर लिखा भी। समर्थ रचनाकार आलोचना की बैसाखी के सहारे खडा नही होता। निराला को अपनी रचना पर दृढ विस्वास था। यह आत्मविश्वास ही उनकी मैं शैली है। कहना न होगा कि निराला के गीत कहीं न कहीं कालिदास,जयदेव,तो कहीं तुलसी मीरा,तो कहीं गुरुदेव रवीन्द्र की गीत परम्परा को आगे बढाते हैं। निराला के गीत इस सीमा तक अपने कथ्य भाषिक-व्यंजना और सवेदना से नए हैं कि बाद के गीतोन्मुख तमाम आन्दोलन उनकी रचनाशीलता का परिविस्तार ही साबित होते हैं। निराला के परवर्ती प्रमुख कवियों में नागार्जुन,त्रिलोचन,केदारनाथ अग्रवाल आदि सभी प्रगतिशीलो ने भी गीत की शक्ति विस्तार ही दिया। निराला के नवगीतो की बानगी देखें- मानव जहाँ बैल घोडा है कैसा तन मन का जोडा है। तथा- बान कूटता है ऐसे बैठे ठाले सुख का राज लूटता है। मुक्तिबोध कविता में जिस मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र की चर्चा करते हैं और डाँ. रामविलास शर्मा जिस श्रम सौन्दर्य की बात करते हैं उसकी रूपरेखा हिन्दी नवगीत के शिल्प मे निराला की देन है।विशेषता यह भी है कि निराला का चिंतन भारतीय काव्यमूल्यो से अनुप्राणित है। अत: उनके गीतों की विवेचना भी भारतीय परिवेष मे विकसित मूल्यों के आधार पर ही की जा सकती है। निराला की कविता में वाक्य और अर्थ कहीं लँगडाता नही है। विराम और अर्धविराम चिन्हों तक का प्रयोग निराला करते चलते हैं।
तात्पर्य यह कि वो अपने पाठ्य को लेकर पूरी तरह सजग हैं।यही कारण है कि निराला के गीत पाठ्य और श्रव्य दोनो रूपों मे सहृदयो को मंत्रमुग्ध करने की क्षमता रखते हैं। निराला ने अपनी कविता के जो मानदण्ड बनाये वो निभाये। इसे ही उन्होने मैं शैली कहा है।घनघोर निराशा की स्थिति में भी वह आशा की किरण खोज ही लेते हैं।आसन्न मृत्यु की स्थिति में संकट की स्थिति में भी निराला गीत का साथ नही छोडते।अपनी अंतिम गीत रचना में वो कहते हैं-
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है
आशा का प्रदीप जलता है हृदय कुंज में
अन्धकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है
दिंड्निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र –पुंज में।
सम्भवत;यही निराला की अंतिम रचना है जो अगस्त 1961 के आसपास रची गयी और सान्ध्यकाकली में संकलित है। इस कविता में भी दिंड्निर्णय ध्रुव से कहकर अपने अटल विश्वास को दृढ करते हैं। निराला अपनी रचनाशीलता की आग को अपनी मुट्ठी में जीवन पर्यंत कसे रहे। तात्पर्य यह है कि निराला की स्वच्छन्दता को छन्दहीनता से जोडकर देखना अनुचित है। निराला के यहाँ छन्द कमजोरी नही है। वह तो सहृदय को आच्छादित करने या हृदयव्यापी बनाने के अर्थ में है। छन्दो के अनंत रूप हैं निराला की कविता में-कहीं लयांविति के रूप में कहीं सांगीतिक लय के रूप में कहीं संवाद धर्मिता के रूप में वो प्रकट होते चलते हैं। डाँ रामविलास शर्मा से बेहतर शायद ही कोई निराला को जान पाया हो।शर्मा जी ने भी निराला की प्रशस्ति अपने एक गीत से ही की थी-
यह कवि अपराजेय निराला जिसको मिला गरल का प्याला
ढहा और तन टूट चुका है पर जिसका माथा न झुका है
शिथिल त्वचा ढलढल है छाती लेकिन अभी सँभाले थाती
और उठाये विजय पताका यह कवि है अपनी जनता का।
निराला अपराजेय हैं क्योकि वह अपनी रचनाशीलता से लगातार जनता से जुडे रहे हैं। निराला समर्थ गीतकार हैं जो टूटकर भी लगातार आत्मस्वाभिमान से उन्नत मस्तक होकर अपनी जनता के दुखों को अपने गीतों से माँजते रहे।
उनका छन्दसौष्ठव और वाक्य विन्यास देखकर उनकी काव्य प्रतिभा का अनुमान लगाया जा सकता है। निराला की गीत परम्परा का विस्तार प्रगतिशील कवियो ने भी किया। बाद में यही परम्परा आगे जाकर नवगीत और जनगीत के रूप में प्रतिफलित हुई जिसके परिणाम स्वरूप राजेन्द्रप्रसाद सिंह,शम्भुनाथ सिंह,मुकुट बिहारी सरोज,रमेश रंजक,ठाकुर प्रसाद सिंह,वीरेन्द्र मिश्र,नईम,उमाकांत मालवीय,देवेन्द्रशर्मा इन्द्र,माहेश्वर तिवारी जैसे अनेक नवगीतकार जनगीतकार उभरे। नवगीत आन्दोलन के बाद छायावादी गीत परम्परा का लगभग अवसान हो गया। निराला की समर्थ गीत प्रतिभा कहीं न कहीं नवगीतकारो को लागातार प्रेरणा देती रही।नई पीढी के नवगीतकारो मे संवेदना के स्तर पर और नई जमीन देखने को मिलती है किंतु छन्दहीन कवितावादियो ने काव्यं गीतेन हन्यते की गलत व्याख्या करके अपनी सुविधा के आधार पर हिन्दी कविता का बहुत आहित किया। दूसरी ओर नये कवियो मे जो नवगीत लिख रहे हैं उनमे वाक्य गठन,भाषिक रचना,तथा सहज सरल जीवन को मुखरित करने वाली समर्थ छन्द रचना का अभाव दिखता है। नये कवि के पास समय नही है।साधना और अभ्यास की कमी इसका मूल कारण है। किसी भी संवेदना को छन्द मे प्रस्तुत किया जा सकता है बशर्ते साधना और अभ्यास किया जाये। निराला अपनी रचनाओ को बार बार माँजते हुए आगे बढते हैं वो कहीं स्वयं को दुहराते नहीं,विचार- भाव- भाषा-शिल्प आदि के प्रयोग उनके यहाँ नए हैं। निराला के बहुत से गीत हैं जिनकी गहन विवेचना होनी चाहिए। यहाँ इस लेख में निराला के गीतो की शक्ति की ओर ध्यान आकर्षित करना भर ही मेरा उद्देश्य है।निराला के यहाँ जीवन और कविता में फर्क नही है।यही कारण है कि निराला के गीत आज के समय में भी प्रासंगिक हैं उनकी छन्दसिकता और जनपक्षधरता की दृष्टि से भी उनके पुनर्पाठ की आवश्यकता बनी हुई है।

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सोमवार, अक्तूबर 03, 2011



नवगीत एकादश की दो समीक्षाएँ

1.संघर्ष को स्वर देते नवगीत

*वेदप्रकाश भारद्वाज

नवगीत के समवेत संकलनों का प्रकाशन तो इस विधा के अस्तित्व मे आने के साथ ही हो गया था। सन 1958 में गीतांगिनी 1964 में कविता चौसठ 1969 में पाँच जोड बाँसुरी के अलावा नवे दशक में प्रकाशित हुए नवगीत दशकों व नवगीतअर्धशती सहित कई समवेत संकलन आये है परन्तु सभी की अपनी एक सीमा थी।यह सीमा हर उस विधा के साथ होती है जो रचनात्मक दृष्टि से समृद्ध होती है।आज किसी भी विधा के किसी भी समवेत संकलन को विधा का प्रतिनिधि संकलन नही कहा जा सकता उसे भी नही जो प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं। अच्छी बात ये है कि कवि संपादक डाँ.भारतेन्दु मिश्र ने ऐसे किसी प्रतिनिधित्व का दावा नही किया है।हाँ उन्होने भोजपुरी,रुहेली,बुन्देली,अवधी व हरियाणवी लोक जीवन व लोक मानस से जुडे नवगीतकारों को एक स्थान पर एकत्रित किया है।इस संकलन में ग्यारह नवगीतकारों के 110 नवगीत संकलित हैं।ये नवगीतकार हैं-जगदीश श्रीवास्तव,पाल भसीन,राधेश्याम बन्धु,राधेश्याम शुक्ल,हरिशंकर सक्सेना,श्यामनारायण मिश्र,सुरेन्द्र कुमार पाठक,भोलानाथ,भारतेन्दु मिश्र,शशिकांत गीते और शरद सिंह ।

नवगीत एक ओर जहाँ मानवीय रिश्तों की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है वहीं दूसरी ओर समसामयिक यथार्थ और आधुनिकता व आधुनिकोत्तर बोध की अभिव्यक्ति हैं। इस संकलन की रचनाओ मे ये तीनो स्वर विद्यमान हैं। यह अलग बात है कि हर कविता का अपना अलग तेवर है। जगदीश श्रीवास्तव के नवगीतो मे संघर्ष का भाव प्रबल है तो पाल भसीन के गीतों में संघर्ष के साथ साथ संवेदना में आज के व्यक्तित्व का संकट-स्वप्नभंग की स्थिति जैसी त्रासदियाँ भी हैं जो बहुत कम गीतकारो के यहाम हैं। इस लिहाज से पाल भसीन की रचनाओ का फलक और विस्तृत हो जाता है।

राधेश्याम बन्धु के गीतो से अदम्य जिजीविषा नजर आती है और चेतावनी का स्वर भी कि जो अभी तक मौन थे वे शब्द बोलेंगे/हर महाजन की बही का भेद खोलेंगे। राधेश्याम शुक्ल सत्ता की विसंगतियो और त्रासदियो का विश्लेषण करते हुए चलते हैं जो उन्हे कहीं कहीं उदास करता नजर आता है।हरिशंकर सक्सेना,श्यामनारायण मिश्र,सुरेन्द्र पाठक,भोलानाथ,भारतेन्दु मिश्र,शशिकांत गीतेऔर शरद सिंह के गीतो में भी सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था की चक्की में पिसते व्यक्ति की पीडा ही अधिक मुखरित हुई है और यही बात इस समवेत संकलन को एक सूत्र से बाँधती भी है।

इस संकलन की रचनाओ के साथ एक अच्छी बात यह भी है कि इनमें प्रयुक्त बिम्ब और प्रतीक नवीनता लिए हुए हैं।चूँकि संपादक ने रचनाओ के चयन में कठोरता बरती है इस लिए संकलन में अच्छी रचनाएँ ही आयी हैं। जाहिर है कि बहुत से जाने पहचाने नाम इसमें नही हैं और यह कोई अवगुण नही है।प्रत्येक संपादक की अपनी दृष्टि और पँहुच होती है।वह उसी दायरे में चयन करता है।फिर किसी एक संकलन में आज सभी मौजूदा गीतकारों को शामिल कर पाना सम्भव नही है।इसके लिए एक नही कई नवगीत एकादश का प्रकाशन करना होगा।

राष्ट्रीयसहारा दैनिक(1 -1-1995)नई दिल्ली पृ.7 से साभार।

2.

स्वीकार और अस्वीकार के बीच नवगीत

*राम अधीर

हिन्दी की एक समर्थ विधा पारम्परिक गीत को नकारते हुए गत दशको से नवगीत साहित्य के क्षितिज पर उभरा है और वह भी तेजी से ,इसमे दो मत नही कि कथ्य की ताजगी और शब्दो के चमत्कार ने नवगीत को अपनी जगह कायम करने का अवसर दिया है किंतु क्या नवगीत और पुराने पारंपरिक के बुनियादी चरित्र मे कोई अंतर है,इस पर आज भी बहस की काफी गुंजाइश है।यह सवाल नवगीत के जन्म से आज तक अनुत्तरित ही है। छन्द विधान का जो स्वरूप पुराने गीत मे है वह नवगीत में भी है।शहरी संत्रास और आम आदमी के दर्द ,कुंठा,विफलता,नैराश्य और आगामी कल को नवगीत में पूरी ताजगी के साथ बयान करने की कोशिश की जाती है।इसने निश्चय ही अच्छे हस्ताक्षर दिए हैं।स्व.डाँ शम्भुनाथ सिंह इसके प्रवर्तक माने जाते हैं। शब्द सामर्थ्य और कथ्य का ऐन्द्रजालिक स्वरूप ही नवगीत को प्राणवत्ता प्रदान करता है।

हाल ही सहकार के आधार पर अयन प्रकाशन दिल्ली ने नवगीत एकादश के नाम से कुल ग्यारह नव्वगीतकारो की बढिया संकलन प्रकाशित किया है-इसमें 6 नवगीतकार तो मध्य प्रदेश के ही हैं और पाँच अन्य राज्यो के ।विशेषता यह है कि इसमें सागर की सुश्री शरद सिंह एकमात्र महिला गीतकार हैं और उनकी पहचान समूचे मध्य प्रदेश में नवगीतकार के रूप में अनूठी है।वह नवगीत की प्रदेश की एकमात्र समर्थ हस्ताक्षर हैं।शरद के गीतो में आत्मकथ्य का प्रगल्भ स्वरूप अगर रूपायित हुआ है तो वह उस दर्द को जीती हैं जो आम आदमी का है जैसे-

बीत गये जाने कितने दिन/धूप ओढते धूप बिछाते/पैरो के छाले भी फूटे/होठो के ताले भी टूटे/देर नही लगती/भाई जी।

भाई जी! सम्बोधन मे आत्मीयता का बोध होता है तो विफलता से उपजी पीडा की आहट भी आती है।उनके दो अन्य गीतो मे बस्तर के आदिम जीवन से जुडने जोडने का पूरा प्रयास हुआ है।फाँके की बारी में शरद सिंह का नवगीतकार बहिर्मुखी होकर अन्दर झाँकता है अन्यथा ये पंक्तियाँ अजन्मी रह जातीं-

हफ्ते में एक दिन /फाँके की बारी/दैनिक वेतन भोगी/छुट्टी इतवारी/जोड जोड दुखते हैं/यंत्रो के साथ जुटे चुप ही तो रहना है/चाहे बिंवाई फटे /कट कट कर मिलती है /शाम को दिहाडी।

आज के ताजे हालातो का यह सही निरूपण कहा जा सकता है।संग्रह में श्यामनारायण मिश्र अपनी कल्पनाशीलता और बिंब प्रतीको के लिए सर्वपरिचित हैं उनका कथ्य लोक संस्कृति और लोक जीवन से जुडने का अनूठा माद्दा रखता है।एक गीत में उनकी बानगी है-

महानगर में मै उदास/तुम्स क्स्बे मे ऊबीं/मै तो अपनी आग जला/दुख अपने तुम डूबीं/अमृत जन्म मिले शायद/इस घोर जन्म के बाद/मन भर सौ अवसाद।

श्यामनारायण मिश्र ने प्रकृति के अनेक चित्र अपने गीतो मे उकेरे हैं जिंको संकलित गीतो मे जगह नही मिली।बहरहाल निश्चय ही इस संग्रह में उनकी अपनी पहचान है।इसी क्रम में भोलानाथ एक उल्लेखनीय हस्ताक्षर हैं यथार्थ के धरातल पर उनका यह गीत सचेत करता है-

प्यास भीतर की बुझा पाती नही/गंगाजली यह काँच की/आग की लपटें दफन हैं/एक मुट्ठी रेत में/मेटकर सोना उगी हैं/नागफनियाँ खेत में/शौर्य का साहस जुटा पाती नही/मुह मंडली यह पाँच की।

काव्य की यह सफाई उनके अन्य गीतो में भी दृष्टव्य है।संकलन मे सुरेन्द्र पाठक और शशिकांत गीते भी ठीक हैं।

नवगीतकार भारतेन्दु मिश्र का यह कथन सही लगता है कि नवगीत में छन्द है,लालिय है,उक्ति वैचित्र्य है,युगबोध है फिर भी उसका विरोध किया जा रहा है।उसी प्रकार भूमिका में डाँ. राजेन्द्र गौतम की यह बात अपनी जगह बानगी है कि गीत समकालीन कविता में अविच्छिन्न है।उसकी अपनी विशिष्ट मुद्रा है,अपना व्यक्तित्व है-पर न तो वह कविता से अलग कुछ है और नही वह झरे पत्ते की तरह विगत महत्व की विधा है। कुलमिलाकर संग्र्ह की भूमिका का अत्यंत ही महत्व है।सम्पादन श्री भारतेन्दु मिश्र ने किया है। कृति का मुद्रण लुभावना है और रचनाओ का अपना स्तर है।

नवभारत भोपाल(23-10-1994) से साभार

पुस्तक: नवगीत एकादश

सम्पादक: डाँ.भारतेन्दु मिश्र

प्रकाशन: अयन प्रकाशन 1/20 महरौली नयी दिल्ली-30

मूल्य: रु 75/

संस्करण:1994